Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ गधचिन्तामणिः बम्बईको ओरसे इसका प्रकाशन हुआ है। समाजके प्रतिष्टित विद्वान् श्रीदरबारीलालजी न्यायाचार्य, एम. एक-द्वारा पाण्डित्यपूर्ण सम्पादन हुआ है। मागचन्द्र ग्रन्थमालालयमानुसार यह मूलमात्र ही प्रकाशित हुआ है किसी अन्य प्रकाशन संस्थाकी ओरसे इसका हिन्दी अनुवाद-सहित प्रकाशन होना अपेक्षित है। २. क्षत्रचूडामणि-यह भगवान महावीर स्वामीके समकालीन राजा सत्यन्धरको विजयारानीके पुत्र जीवन्धर कुमारका वृत्तवर्णन है । इनका जीवनवृत्त अनेक घटनाओंसे भरा हुआ है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थोंका फल प्रदर्शन करने में अद्वितीय है। ग्रन्थको रचना ग्यारह लम्बोंमें अनुष्टुप छन्द-द्वारा हुई है। खास विशेषता यह है कि प्रायः इसके प्रत्येक पद्यके पूर्वाध कथाका वर्णन क उत्तरार्धमें अर्थान्तरन्यास-द्वारा नीतिका वर्णन करता चलता है। इस शैलोसे लिखा हुआ यह नीतिका ग्रन्य समग्र संस्कृत-साहित्य में बेजोड़ है। कोआ, चहा, मग आदिकी काल्पनिक कहानियों के द्वारा बालकोंमें मोतिको भावना भरनेवाले पंचतन्त्र आदि अन्य जहाँ बालकों तक ही सीमित रह जाते हैं वहीं सत्य घटनाके द्वारा नीतिको भावना उत्पन्न करनेवाला यह अन्य आबालवृद्ध-सबके लिए उपयोगी बन पड़ा है। सर्वप्रथम टी० एस० कुप्पुस्वामी-द्वारा इसका तुलनात्मक टिप्पण के साथ मूलरूपमें प्रकाशन हुआ था। पीछे चलकर पाठ्यग्रन्थ हो जानेसे स्व. पं० निद्धामल्लजी तथा पं० मोहनलालजी काव्यतीर्थ-द्वारा इसके अनुवाद भी प्रकाशित किये गये हैं पर इन अनुवादोंमें भी यदि कुप्पुस्वामीको सम्पादन-शलोको ही स्थान मिलता तो वे अधिक हितावह होते। ३. गद्यचिन्तामणि-गद्यचिन्तामणि और क्षत्रचूड़ामणिका कथानक एक है, कथानायक एक है, पात्र, स्थान आदि एक हैं। यहांतक कि लम्भ भो दोनों के ग्यारह-ग्यारह ही हैं । घटनाका सादृश्य भी दोनों का मिलता-जुलता है । इसके प्रारम्भमें जिनेन्द्रदेव, गणधर, जिनधर्म और स्यात्पदसे चिह्नित जिनवाणीको मंगल स्तुति करनेके अनन्तर समन्तभद्रादि पूर्व मुनियोंका स्मरण किया गया है । वादीभसिंह स्वयं वाद-कलामें निपुण थे और स्याद्वादवाणीकी गर्जनासे बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानोंका मदध्वंस करनेवाले थे अतः उन्होंने समन्तमद्रादि मुनियोंके अन्य गुणोंको गौण करते हुए 'वाग्वजनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः' विशेषणद्वारा उनकी वादनिपुणताका ही उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि वे समन्तभद्रादि मुनीश्वर जयवन्त हों जो सरस्वतीके स्वतन्त्र विहारकी भूमि हैं और जिन्होंने अपने वचनरूप बनके निपातसे विरुद्ध सिद्धान्तरूपी पर्वतोंके शिखरोंको विदीर्ण कर दिया है । तदनन्तर अपने गुरु पुष्पसेनका स्मरण कर सज्जन-प्रशंसा और दुर्जन निन्दाको पद्धतिको पूरा करते हुए श्रेणिकके प्रश्नपर सुधर्म गणनायकके द्वारा जीवन्धरको कथाका पोद्धात किया गया है। ___ गद्यचिन्तामणि गद्य काव्य है और पूराका पूरा प्रौढ़ गद्यमें लिखा गया है। दो-तीन स्थलोंपर कुछ पद्य भी दिये गये है जो स्तति आदिके रूपमें आवश्यक प्रतीत होते हैं। गद्यचिन्तामणिके विशिष्ट गणोंकी चर्चा करते हुए इसके प्रथम पुरस्कर्ता श्रीकुष्णस्वामोने बड़ो सुन्दर पंक्तियाँ लिखी है-- 'अस्य काव्यपथे पदानां लालित्यं श्राव्यः शब्दसंनिवेशः निरर्गला वाग्वैखरी सुगमः कथासारावगमश्चित्तविस्मापिकाः कल्पनाश्चेतःप्रसादजनको धर्मोपदेशो धर्माविरुद्धा नीतयो दृष्कर्मणो विषमफलावासिरिति विलसन्ति विशिष्टगुणाः" । अर्थात् 'इनके काव्यपथमें पदोंको सुन्दरता, श्रवणीय शब्दोंकी रचना, अप्रतिहत वाणी, सरल कथासार, चित्तको आश्चर्य में डालनेवाली कल्पनाएँ, हृदयमें प्रसन्नता उत्पन्न करनेवाला घर्मोपदेश, घमसे अविरुद्ध नौतियां और दुष्कर्मके फलको प्राप्ति आदि विशिष्ट गुण सुशोभित है ।' 1. सरस्वतीस्वरचिहारभृमयः ममन्तमप्रमुखा मुनीश्वयाः I जयन्तु वाग्वज्रनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः ॥५॥ग चि० । २. गद्यचिन्तामणि-प्रस्तावमा ।

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