Book Title: Gadyachintamani
Author(s): Vadibhsinhsuri, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 13
________________ १२ गद्य चिन्तामणिः में उसको कठिनाई भी एक कारण हो सकती है। क्योंकि गद्य लिखनेको क्षमता रखनेवाले विद्वान् अल्प हो होते आये हैं। यही कारण है कि संस्कृत, साहित्यमें काव्यको शैलीसे स्वतन्त्र गद्य लिखनेवाले लेखक अँगुलियोंपर गणनीय है । यथा वासवदत्ताके लेखक सुबन्धु कादम्बरी और हर्षचरित के लेखक बाण, दशकुमार चरित लेखक दण्डी, गद्यचिन्तामणिके लेखक वादीभसिंह सूरि तिलकमंजरीके लेखक धनपाल और शिवराज विजयके लेखक अम्बिकादत्त व्यास | चम्पू- साहित्य के रूपमें पद्योंके साथ गद्य लिखनेवाले लेखक इनकी अपेक्षा कुछ अधिक हैं । गद्य के भेद --- साहित्यदर्पणकार विश्वनाथने साहित्यदर्पणके पष्ठ परिच्छेद में श्रव्यकाव्यके भेदोंका वर्णन करते हुए गद्यकी निम्न प्रकार चर्चा की है— वृत्तगन्धोज्झितं गद्यं मुक्तकं वृत्तगन्धि च । भवेयुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम् ॥ बाद्यं समासरहितं वृत्तभागयुतं परम् । अभ्यद्दीर्घसमासादयं तुर्यं चाल्पसमासकम् ॥ जिसमें छन्दको गन्ध भी — लेश भी न हो उसे गद्य कहते हैं । इसके मुक्तक, वृतगन्धि, उत्कलिकाप्राय और चूर्णक के भेदसे चार भेद हैं । जो लम्बे-लम्बे समासोंसे रहित है उसे मुक्तक कहते हैं । जैसे---- 'गुरुवचसि पृथुरुरसि' इत्यादि I जिसमें वृत्त - छन्दको गन्ध हो उसे वृत्तगन्धि कहते हैं । जैसे 'समरकण्डूल निबिडभुजदण्डकुण्डलीकृतकोदण्डशिञ्जिनीटङ्का रोज्जागरितवैरनगर - ' इत्यादि । यहाँ 'कुण्डलीकृतकोदण्ड - यह अनुष्टुप् वृत्तका पाद प्रतीत होता है । जो उठती हुई तरंगोंके समान एकके बाद एक लम्बी पदावलीसे युक्त हो उसे उत्कलिकाप्राय कहते हैं । जैसे - 'अनिश विस्मरनिशितशर विसरविदलितसमरपरिगतप्रवरपरबल -' इत्यादि । असमस्त अथवा छोटे-छोटे समस्त पदोंसे युक्त गद्यको चूर्णक कहते हैं । जैसे 'गुणरत्नसागर, जगदेकनागर, कामिनीमदन, जनरञ्जन' – इत्यादि । गद्यकाव्य के भेद - गद्यके उक्त चार भेदोंको प्रयोगात्मक रूप देनेवाले गद्य-काव्यके दो भेद हैं१ कथा और २ आख्यायिका । कथाका लक्षण साहित्यदर्पणकारने इस प्रकार माना है कथायां सरसं वस्तु गद्येरेव विनिर्मितम् । क्वचिदेव भवेदाय पचिद्वक्त्रापववत्रके ॥ आदी पद्यनमस्कारः खलादेर्वृत्तकीर्तनम् । कथा में समूची वस्तु सरस शैलीसे गद्यमें ही लिखी जाती है । परन्तु कहीं-कहीं आर्या और कहीं-कहीं वक्त्र तथा अपववत्र छन्दोंका भी प्रयोग रहता है । ग्रन्यके प्रारम्भमें अनेक पद्यों द्वारा इष्टदेवको नमस्कार तथा सुजनप्रशंसा और दुर्जननिन्दाका भी अवतरण रहता है। जैसे कादम्बरी, गद्यचिन्तामणि, तिलकमंजरी आदि । आख्यायिकाका लक्षण इस प्रकार है आख्यायिका कथावत्स्यात्क देवंशानुकीर्तनम् । अस्यामन्यकवीनां च वृत्तं पद्यं क्वचित् क्वचित् ॥ कथांशानां व्यवच्छेद अश्वास इति बध्यते । आर्यावववक्त्राणां छन्दसा येन केनचित् । अन्यापदेशेनाश्वासमुखे भाव्यर्थ सूचनम् ॥ आख्यायिका भी कथाके ही समान होती है परन्तु उसमें कविके आख्यायिका में अन्य कवियोंका चरित्र तथा पद्य भी कहीं-कहीं संदृब्ध रहते हैं। वंशका भी वर्णन रहता है । इसमें कथांशोंके विरामको

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