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समाप्त कर लेने के बाद और अनुवाद भी जब पूरा हो गया, तब मेरा ध्यान 'जैन सिद्धान्त भास्कर' ११, पृ. ११३ और १२, पृ. ५४, १-९ ( आरा १९४४-४६ ) की तरफ आकर्षित किया गया, जहाँ पं. भुजबली शास्त्रीने मूडबिद्री पाण्डुलिपिका वर्णन किया है ( सम्भवतः वही पाण्डुलिपि, जिसकी एक प्रतिलिपि मुझे भेजी गयी थी ), और 'ध्यानस्तव' का मूलपाठ भी दिया है । इसमें कुछ मामूली पाठभेद हैं :
१. सर्वदोषदम् के लिए सर्वदोषहम् ५७. अन्तर्भावो यदाभीष्टो के लिए अन्तर्भावोयभीष्टो ७०. यथा स्थितिम् के लिए यथास्थितम् ७८. तदेवोत्तममर्थानां के लिए तदेवोत्तमतार्थानां ९९. एहि याहीति जातु के लिए हेहि हाहीति जातु
१.काव्यको रूपरेखा मंगलश्लोक १-२ परमात्माको नमन करते हुए, काव्यका उद्देश्य पूर्णताप्राप्तिमें
निहित निर्धारित किया गया है। ध्यानकी प्रकृति : ३-७ ध्यानकी प्रकृति, परिभाषा और प्रयोजनका सारांश प्रस्तुत
किया गया है । ध्यानीके लिए सम्यग् दृष्टि होना जरूरी है,
आसंगसे मुक्त और सत्य के ज्ञानसे सम्पन्न । ध्यानका विभाग ८-२३ ध्यानके चार प्रकारोंका वर्णन है, वे हैं, आतं, रौद्र, धर्म्य,
. और शुक्ल ।
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