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योगसारका विषय और भाव उनके 'परमात्मप्रकाश' के समान है। और यह काफी दिलचस्प है कि ध्यानसे सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द जैसे धर्म्य और शुक्ल 'योगसार'में नहीं आये हैं। पिण्डस्थ आदिकी गणना करनेवाला यह दोहा, बिना किसी स्पष्टीकरणके उस दोहेसे पहले आ जाता है जो शुक्लध्यानकी विवेचना-सो करता प्रतीत होता है। यह कुछ ऐसा जान पड़ता है कि ये ध्यानके पारम्परिक वर्गीकरणसे भिन्न, ध्यानके मुख्य विषयके अन्तर्गत प्रयुक्त हुए हैं, जैसा कि अमितगतिने किया है। यह निश्चित रूपसे इस बातका संकेत करता है कि ये विभाग जैनयोगकी पारम्परिक श्रेणीके लिए अपरिचित हैं। यह इस बातका संकेत हो सकता है कि इन चार विभागोंने योगीन्द्र के समय में जैनोंके बीच लोकप्रियता प्राप्त की थी, फिर भी, हम यह नहीं जानते हैं कि उन्होंने कहांतक और किस रूपमें इन शब्दों को समझा था। विद्वज्जन योगीन्द्रको छठीसे ११वीं शताब्दी तक अलग-अलग रखते हैं।
१. टि०-प्रामाणिक चर्चाके सन्दर्भ में मूल अँगरेजी प्रस्तावना हो आधारभूत होनी
चाहिए।
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