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ध्यानस्तव
ध्यानस्तव ५८ .
तत्त्वार्थवृत्ति ५:१-३, ३९ । (द्र ३) ५ : २३, २५ ५ : १९-२०, २४
तत्वार्थवृत्ति १ : ९-१२ - १:३३ वृ १ : ५ वृ
५ : १८ (द्र १९) ५ : २२ वृ ५ : १, ३, २९-३०
६९-७२ ७३-६६ ७७ ७८. ७९-८१ ८२-८४ ८५-८७ ८८-९२ ९४-९६ ९८-१००
१:२ और व १: ३ वृ १: २७ २: ३, ४ वृ १:१-३ और वृ (सम ४६) (द्र ४८) प्रशस्ति
६६ ६७
'५, २२ वृ, ३९ वृ
५:८-१० और वृ
टिप्पणी :-तत्त्वार्थवृत्तिमें जिनका स्रोत प्राप्त है, उनके बारे में अन्य ग्रन्थोंका प्रसंग नहीं दिया गया है । '९ : २९' तत्त्वार्थसूत्रका निर्देश करता है। '१० : २-४ वृ' 'सूत्र' पर उनकी 'वृत्ति' का निर्देश करता है। “२:७-९ और वृ' 'सूत्र' और उनकी वृत्तिका निर्देश करता है।
'ध्यानस्तव' 'वृत्ति' के १, ५ और ९अध्यायोंसे विशेषरूपसे अवतरित है। प्रथम और पाँचवाँ अध्याय जैनतत्त्वशास्त्र, तत्त्वमीमांसा और ज्ञानशास्त्रसे सम्बन्धित है; नवें अध्यायमें, कर्मोंके संवरके साथ ध्यानको कर्मोंकी निर्जराके सहायक आन्तरिक तपश्चर्याओंमें-से एक स्वीकार किया गया है। ध्यानस्तवमें वृत्ति'की मूल धारणाको अपरिवर्तित रूपसे ग्रहण किया गया है। हमारे 'स्तोत्र' में सिर्फ एक विशेष वस्तु ज्यादा सुस्पष्ट की गयी है। उदाहरणार्थ, भास्करनन्दि 'ध्यानस्तव'के ५०-५९ श्लोकोंमें यह बताते हैं कि तत्त्व द्रव्य और भाव रूपमें प्राप्त है। पुण्य, पाप, मोक्ष और
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