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३. ग्रन्थकार - भास्करनन्दि 'तत्त्वार्थवृत्ति और 'ध्यानस्तव' के रचनाकार हैं, जो इस समय हमारे परिचित उनके उपलब्ध मात्र ग्रन्थ हैं । वे, निस्सन्दिग्ध रूपसे एक विज्ञ विद्वान् थे, और इन ग्रन्थोंकी उन्हें अच्छी जानकारी थी, उदाहरणार्थ, समाधिशतक, ध्यानशतक, यशस्तिलक, द्रव्यसंग्रह, गोम्मटसार, श्रावकाचार और निश्चय ही, अष्टाध्यायी, जैनेन्द्र व्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक और इलोकवार्तिक आदि। ये वे ग्रन्थ है जिनका उल्लेख उनके दो ग्रन्थों में मिलता है, और उनकी तत्त्वार्थवृत्ति तो वस्तुतः अन्तिम तीन ग्रन्योंका संक्षिप्तीकरण है। इसका उपशीर्षक सुखबोधा, अथवा इसकी सरल अवधारणा, टीकाके उद्देश्यका ठीक-ठीक संकेत करती है। इसे उन्होंने सीधे-सादे पाठकों के लिए सरल शैलीमें लिखा, जिसमें अपनी प्रतिभा का वे पूरा उपयोग करते हैं । उनका तरीका पुरातनपन्थी पण्डितका है, समालोचकका नहीं। योगदेवकी 'तत्त्वार्थसूत्र सुखबोधवृत्ति' उनकी 'वृत्ति' अथवा 'सुखबोधा'पर टीका है। रविनन्दिके तत्त्वार्थसूत्रटीका, जिसे 'सुखबोधिनी' कहा है, उपरोक्त दो ग्रन्थों में से किसी एककी टीका जैसी प्रतीत होती है, इस विषयमें मैं निश्चित नहीं हूँ। 'सुखबोधवृत्ति' की प्रशस्तिसे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि भास्करनन्दिकी 'तत्त्वार्थवृत्ति' दक्षिण में सर्वसामान्य रूपसे पढ़ी जाती थी। यह बात आज भी सत्य मानी जा सकती है, क्योंकि श्री एच. आर. रंगस्वामी अयंगार, पं. ए. शान्तिराज शास्त्री द्वारा सम्पादित तत्त्वार्थवृत्तिकी भूमिकामें लिखते हैं, "इसका प्रकाशन अनेक जैन विद्वानोंके आग्रहपर किया गया है।"
'ध्यानस्तव' भी एक तर्कसंगत क्रममें एकके बाद एक विषयोंका विकास करते हुए शान्त भावसे सुस्पष्टताकी उसी शैली में प्रस्तुत हुआ है । इसके अन्तिम तीन श्लोक उनकी 'वृत्ति'की प्रशस्तिकी वस्तुतः प्रतिध्वनि है, जो किसी के द्वारा परिपूरित होनी चाहिए, उदाहरणार्थ, उनके शिष्य
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