________________
३४
की प्रसिद्धिसे तटस्थ एक प्रौढ़ योगी थे । और इससे भी बढ़कर लोगोंने उनकी आराधना की होगी, और उनकी पूजा की होगी, और यह चाहा होगा कि वे श्री योगोके रूपमें सदा जीवित और कायम रहें । इसलिए उन्हें कम-से-कम ११०० ई. तक चालीसी अथवा पचास में होना चाहिए । उसमें उन्हें भट्टारक नहीं कहा गया है । तब हम यह कल्पना कर सकते हैं कि कुछ वर्षों बाद, विशेष वृद्ध होने से पहले ही, जिनचन्द्र भट्टारक हो गये होंगे ।
मैं इस सन्दर्भ से यह स्वीकार करती हूँ कि 'वृत्ति' के जो विवरण हैं, जो जिनचन्द्रको भट्टारक घोषित करते हैं, किसीके द्वारा अन्तर्वेशित कर दिये गये हैं । तब यह अन्तर्वेशन जिनचन्द्र के भट्टारक होने के बाद किया गया था । इसके हर अध्यायके साथ संलग्न पुष्पिका यह प्रकट करती है कि उन्होंने पूर्णताकी अवस्था प्राप्त की थी । इसका अर्थ है कि जब यह अन्तर्वेशन किया गया, तब उनकी मृत्यु हो गयी थी । अब हम यह नहीं जानते कि कब तो वे भट्टारक के पदपर नियुक्त हुए और कब उस पद से हटे, और न यही जानते हैं कि कब उनकी मृत्यु हो गयी । अगर जिनचन्द्रका काल ११०० ई. में मान लिया जाये, उनके शिष्य भास्करनन्दिको इस काल तक अपने ग्रन्थोंको पूरा तक कर लेना चाहिए । इन मान्यताओंसे, हम तीन सम्भाव्य अवसरोंके बारेमें सोचने में समर्थ हो सकते हैं, जो उनके मूलपाठों और विवरणोंकी तिथिसे सम्बन्धित हैं :
१ ) भास्करनन्दिने अपने मूलपाठोंको ११०० ई. तक पूरा कर लिया था, और जो पुष्पिकाएँ हैं, वे जिनचन्द्रको मृत्युके बाद जोड़ी गयी हैं ।
२ ) उन्होंने उन्हें उस समय तक पूरा कर लिया था जब उनके गुरु भट्टारकके आसनपर थे और प्रशस्ति उनकी मृत्यु के बाद पूरी की गयी ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org