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अथवा लिपिकार द्वारा। इसमें भास्करनन्दिका परिचय जिनचन्द्र भट्टारकके शिष्यके रूपमें दिया गया है, जिनके गुरु सर्वसाधु नामके एक सम्मान्य यति थे। वृत्तिके हर अध्यायके अन्त में पुनः एक प्रशस्ति संलग्न है, जो उसी लेखनीका अन्तर्वेशन होना चाहिए। यह उनके साक्षात् गुरु जिनचन्द्रका प्रशस्तिगान है, जो इस प्रकार है :
महासैद्धान्त श्री जिनचन्द्र भट्टारकके शिष्य पण्डित श्री भास्करनन्दि द्वारा रचित ( तत्त्वार्थसूत्रकी ) महान् टीका 'सुखवोधा' के ( दसवें) अध्याय समाप्त हैं । जो जिनचन्द्र रत्नोंकी प्रभा चन्द्रमा स्पन्दित ग्रहों, मोतियोंके हार और आकाशके गुम्बदमें जगमगाते और दीप्तिमान् नक्षत्रों द्वारा अनुसेवित; लोकके लिए श्रेष्ठतम शरीरसे युक्त निष्कलंक चन्द्रमा, जिन्होंने पवित्र ध्यानाग्नि, प्रज्वलित जोतके द्वारा घनघाति कर्मोंके बन्धनकारी ईंधनको जला दिया है और जो सर्वान्तर्यामी परमात्मा पूर्ण शुद्ध हो गये हैं; जिनके केवलज्ञान द्वारा लोक और अलोककी अन्तर्जात प्रकृति देख ली गयी है। जिनके द्वारा आत्माओं और अन-आत्माओंका सिद्धान्त, जिनोंके स्वामी परमेश्वरका दर्शन प्रसारित किया गया है; उन्होंने पूर्ण कही जानेवाली अवस्थाको प्राप्त कर लिया है, जो कि आत्माकी अत्यन्त सम्माननीय अवस्था है। [ मूल संस्कृतसे भावानुवाद ]
सर्वसाधु-जिनचन्द्र-भास्करनन्दिकी परम्परा अभी तक भी प्रमाणित नहीं हुई है । ऐसा प्रतीत नहीं होता कि भास्करनन्दि भट्टारकके आसनपर बैठे, और बहुत-से विद्वान् अब तक इन्हें पहचाननेकी कोशिश करते रहे हैं कि जैन पट्टावलीमें कौन-से जिनचन्द्र भट्टारक इनके गुरु थे। जिनचन्द्रके नामसे बहुत-से आचार्य सुपरिचित हैं : १) चण्डिनन्दि ( चन्द्रनन्दि ) के शिष्य जिनचन्द्र, ९५० ई.; अपने
काव्य 'शान्तिनाथपुराण में निर्दिष्ट हुए हैं। २) १०६७ ई.में रचित संवेगरंगशालाके रचयिता और खरतरगच्छमें
जिनेश्वरसूरिके शिष्य जिनचन्द्रसूरि ।
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