Book Title: Dhyanastav
Author(s): Bhaskarnandi, Suzuko Ohira
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 56
________________ १५ ध्यानकी प्रकृति माना गया है, इस प्रणाली में आत्माको अन्यत्र आलंकारिके दृष्टिसे ध्यान कहा जाता है। और जब रूपकका कोई कारण विद्यमान ही न हो ( अर्थात् जब आत्मा रूप परिवर्तित नहीं करती, बल्कि चैतन्यकी अपनी स्वाभाविक अवस्थामें स्थिर हो जाती है, ) तब मुक्तिकी अवस्थाका होना प्रमाणित हो जाता है- जैन प्रणाली द्वारा ध्यानकी प्रकृति पारम्परिक रूपसे निष्कम्प विचारकी स्थिति में आत्माके रूपमें समझी जाती है। इसलिए आर्त और रौद्र ध्यान भी इसके विभागोंके रूपमें स्वीकार किये गये हैं, जब कि वे पुनर्जन्मके कारण हैं। बादमें, हेमचन्द्र जैसे कुछ विद्वानोंने, जो योगको त्रिरत्नमण्डित मानते हैं, उन्हें ध्यानके विभागोंके रूपमें अस्वीकार कर दिया है । शेष दो प्रकार, धर्म्य और शुक्ल, मुक्तिके कारण और उपाय है। तत्त्वार्थवृत्ति १:१ में, मुक्तिकी प्रकृति, जो कि हमारे जीवनका प्रधान लक्ष्य है, सोमदेवके यशस्तिलकमें ६, कल्प १ के लम्बे उद्धरण द्वारा एक अन्तिम श्लोकके साथ, वणित की गयी, "आनन्द, ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य और परम सूक्ष्मता : ये अनन्त हैं। इनमें ही जिनके धर्म में मुक्ति निवास करती है।" एक शब्दमें, मुक्ति मूल आत्माका उद्घाटन अथवा साक्षात्कार है। और उच्चतम अवस्थाओंमें ध्यान इसका लक्ष्य सिद्ध करता है। ध्यान, मुक्ति और आत्माओंका स्वरूप और उनका परस्पर निर्भर सम्बन्ध, जो 'वृत्ति' १:१ और ९:२७ की विषय-सामग्री हैं, हमारे प्रारम्भिक चार श्लोकों, ३-६ में एकत्र हो गये हैं। • तत्त्वार्थसूत्र ९-२८ ध्यानको चार भेदोंमें विभक्त करता है, वे हैंआर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल; जिनमें अन्तिम दो मुक्तिके कारण हैं। उनकी 'वृत्ति में वणित भेद, उपभेद, स्वरूप और ध्यानकी इन चार विधियोंका ध्यान करने वाले हमारे ८-२३ श्लोकोंमें साररूपसे प्रस्तुत किया गया है। धर्मध्यानके बारेमें, पूज्यपाद और अकलंकका विचार है कि यह चौथीसे सातवीं गुणस्थानोंमें रहनेवालोंको प्राप्त होता है । 'वृत्ति' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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