Book Title: Dhyanastav
Author(s): Bhaskarnandi, Suzuko Ohira
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ किया गया है, जो आज्ञा-विचय [इत्यादि] है । यह घय॑ध्यानके फलकी व्याख्या द्वारा अनुसरित हुआ है । शुक्लध्यानका परिचय ११वें अध्यायमें दिया गया है, और १२वां अध्याय इसके फलोंके वर्णनके साथ अन्त हो जाता है। इस प्रकार हेमचन्द्र चार स्थ और चार धर्म-ध्यानके उपविभागों-इन दोनोंको ध्यानके विषयके अन्तर्गत श्रेणीबद्ध करते हैं। वे धर्मध्यानके किसी भी उपविभागमें चार स्थोंको अधीनस्थ करनेका प्रयत्न नहीं करते। दूसरे शब्दोंमें, जिसे घ्यानके आधार द्वारा उपविभक्त किया जा सकता है, ऐसे धर्म्य-ध्यानके विभाजनके दो प्रकार हैं, अनआगमिक और आगमिक । वे यह भी कहते हैं कि धर्म-ध्यान स्वर्गका कारण है, और शुक्लध्यान मुक्तिका । शुक्लध्यानको ध्यानके आधार द्वारा उपविभक्त नहीं किया जा सकता, और इसे परम्पराके अनुसार प्रयुक्त किया गया है। 'ज्ञानार्णव' ध्यानके रूढ़ विभाजनको चार रूपोंमें स्वीकार करता है, वे हैं, आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल । हर एकके चार उपविभाग हैं । शुभचन्द्र धर्म्य-ध्यान ( अ. ३६ ) के चतुर्थ अथवा अन्तिम उपविभाजनके अन्तर्गत चार स्थोंको अपेक्षित क्रममें रखते है, वह क्रम है, पिण्डस्थ ( अ. ३७), पदस्थ ( अ. ३८), रूपस्थ ( अ. ३९) और रूपातीत ( अ. ४०)। इसके ३६ : १८५ में, तीन लोककी व्याख्याके बाद, शुभचन्द्र स्पष्टतया अगले चरण पिण्डस्थका परिचय देते हैं, जो कि संस्थानविचयसे इसके सम्बन्धका विश्लेषण करता है । 'योगशास्त्र' और 'ज्ञानार्णव' पिण्डस्थको पुनः पाँच स्थितियों में उपविभक्त करते हैं, वे हैं, १. पार्थिवी, २. आग्नेयी, ३. मारुती, ४. वारुणी और ५. तत्त्व रूपवती या तत्रभू । हमारे २६ और २७ श्लोक अन्तिम चरणका वर्णन करते से दिखाई पड़ते हैं। श्लोक २५ पार्थिवी धारणासे पूर्णतया तद्प नहीं है, बल्कि व्यंजक है, श्लोक २८ आग्नेयी धारणाका संकेत करता है। हमारे 'ध्यानस्तव में अपरिपक्व रूपमें वणित शेष स्थोंको जैन योगके इन दो ग्रन्थोंमें बड़े परिष्कृत रूपमें विस्तृत रूपसे चित्रित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140