Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 1
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 6
________________ दो शब्द भारतीय संस्कृति के आत्म-तत्त्व को हृदयङ्गम करने के लिए हमें उसके अजस्र प्रवाह को समझना होगा। आज हम अपने ही स्वरूप, स्वभाव और स्वधर्म से इतने अपरिचित हो गये हैं कि भारतीय संस्कृति के आधारभूत व्यापक जीवनानुभव को, जिसे हिन्दू धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है, न तो उसे परिभाषित कर सकते हैं और न उसकी उदात्त भावनाओं के साथ एक रस हो पाते हैं जबकि सत्य यह है कि अपनी परंपराओं और संस्कारों के कारण हमारा चिंतन हमें उस ओर प्रेरित करता है। हिन्दू धर्म उपासना की पद्धति भर नहीं है। वह एक समग्र जीवन-दर्शन एवं व्यवहार-प्रक्रिया है। उसमें सकारात्मक स्वीकृतियों के साथ निषेधात्मक पक्षों के उन्नयन की गंभीर दृष्टि और उस पर आधारित समय-समय पर विकसित होते हुए जीवन के सभी क्षेत्रों के विधान हैं, जिन्हें 'शास्त्र' कहा गया है। इन शास्त्रों का ज्ञान अब सबको सहज उपलब्ध नहीं है, साथ ही भाषा एवं समय के अन्तराल ने उन्हें दुरूह भी बना दिया है। इससे हम न तो अपने अतीत का ठीक से मूल्याकंन कर पाते हैं और न अपने इतिहास के उपयोगी बिन्दुओं को सजगता से ग्रहण कर पाते हैं। . इस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए सुप्रसिद्ध विद्वान महामहोपाध्याय डा० पाण्डुरंग वामन काणे ने 'धर्मशास्त्र का इतिहास' नामक बृहद् ग्रंथ प्रस्तुत किया, जिसे उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने पाँच भागों में प्रकाशित करने का पुनीत कार्य किया। इस ग्रंथ में धर्मशास्त्र के सभी अंगों का विशद् अध्ययन, उनके विश्लेषण की सूक्ष्म दृष्टि और उन्हें परंपरा में सँजोकर पाठक को उनके क्रमागत निष्कर्षों के निकट ले जाने का अवसर प्रदान करना निश्चय ही अभिनन्दनीय है। उनके इस प्रयास से हिन्दू धर्मशास्त्र की सभी परंपराएँ जीवंत रूप में पाठक के समक्ष आती हैं और अपने अतीत के चिंतन-वैभव के गौरव की अनुभूति के साथ ही आज के अपने आचार-विचारों के मूल उत्स का परिचय भी प्राप्त होता है। हिन्दू धर्म और संस्कृति केवल अध्यात्मजीवी ही नहीं रहे हैं, उन्होंने सुनिश्चित व्यवस्थित व्यवस्थाएँ एवं मर्यादाएँ निर्धारित की हैं, यह इस ग्रंथ से सहज स्पष्ट हो जाता है। स्वात्म की ऐसी विशद् अनुभूति के कारण ही यह ग्रंथ मनीषियों एवं जिज्ञासुओं में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है और अब तक इसके अनेक संस्करण प्रकाशित हो प्रस्तुत ग्रंथ के प्रथम भाग का चतुर्थ संस्करण पुनः आपकी सेवा में अर्पित किया जा रहा है। आशा है कि विद्वज्जन इसका स्वागत करेंगे। २ जून ९२ डॉ० शरण बिहारी गोस्वामी कार्यकारी उपाध्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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