Book Title: Dharmrasayana
Author(s): Padmanandi, Vinod Sharma
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 4
________________ ग्रन्थ की विषयवस्तु : -- भूमिका 'धम्मरसायण' नामक प्रस्तुत कृति माणकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के पुष्प 21 के सिद्धान्तसारादि - संग्रह नामक ग्रन्थ के अन्तर्गत हमें उपलब्ध हुई । इसके नाम से ही स्पष्ट है कि प्रस्तुत कृति का उद्देश्य धर्म के स्वरूप को स्पष्ट करना रहा है। प्रस्तुत कृति में निम्नांकित सोलह विषयों का संकलन है- 1. मंगलाचरण, 2. धर्म की महिमा, 3. धर्म-अधर्म का विवेक, 4. नरक गति का स्वरूप, 5. तिर्यंच गति का स्वरूप, 6. कुमनुष्य गति का स्वरूप, 7. देव गति का का स्वरूप, 8. धर्म के वास्तविक स्वरूप की परीक्षा, 9. सर्वज्ञ के स्वरूप की समीक्षा, 10. जिनेन्द्र परमात्मा की महिमा, 11. धर्म के प्रकार, 12. सम्यक्त्व का माहात्म्य, 13. सागार (गृहस्थ ) धर्म, 14. देवसुगति, 15. मनुष्यसुगति, 16. अणगार धर्म (मुनि धर्म) । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में उपर्युक्त 16 विषयों का प्रतिपादन हुआ है। चारों गति एवं दोनों प्रकार के धर्म मूलत: धर्म से ही सम्बन्धित है। अतः कृति का नाम धम्मरसायण सार्थक ही सिद्ध होता है । ग्रन्थ की भाषा एवं परम्परा : प्रस्तुत कृति 193 प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है, किन्तु जहाँ तक इसकी प्राकृत के स्वरूप का प्रश्न है यह न तो अर्धमागधी है, और न शौरसेनी है, क्योंकि इसमें मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' के प्रयोग का प्राय: अभाव ही है जो कि शौरसेनी प्राकृत का एक प्रमुख लक्षण है। दिगम्बर परम्परा के प्राय: सभी ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत में पाये जाते हैं। यदि हम इसकी विषयवस्तु का विचार करें तो यह स्पष्ट है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है, क्योंकि इसमें मुनि के अट्ठाईस मूल गुणों की चर्चा है (देखें गाथा 183 ) । इसी प्रकार इसमें परमात्मा (अरहंत परमात्मा) को क्षुधा तृषादि दोषों से रहित बताया है, यह भी दिगम्बर दृष्टिकोण है (गाथा 120)। तीसरे इसकी गाथा 123 में प्रयुक्त 'णिरंबरों' शब्द भी कृति के दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध होने की पष्टि करता है। फिर भी मध्य 'त' का द न होने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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