Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 12
________________ प्रस्तावना अतः वही धर्म है । यही बात आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके प्रारम्भमें कही है कि मैं कर्मबन्धनको मेटनेवाले उस समीचीन धर्मका उपदेश करता हूँ जो संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर जीवोंको उत्तम सुखमें धरता है । वह धर्म है सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र । इनके विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र संसारके मार्ग हैं। अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही जीवोंके सांसारिक दुःखोंके कारण हैं। यदि इनसे मिथ्यापना दूर होकर सम्यक्पना आ आये तो संसारके दुःखोंसे छुटकारा हो जाये । आचार्य कुन्दकुन्दने केवल चारित्रको धर्म कहा है। और आचार्य समन्तभद्रने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको धर्म कहा है। किन्तु इन दोनों कथनोंमें कोई विरोध नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बिना सम्यक्चारित्र नहीं होता। अतः सम्यक्चारित्रमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान गभित ही हैं । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि कोई चारित्र धारण करे तो उसके चारित्र धारण कर लेनेसे ही उसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति हो जायेगी। ऐसा तीन कालमें सम्भव नहीं है। धर्मका प्रारम्भ सम्यग्दर्शनसे होता है क्योंकि जिन आचार्य कुन्दकुन्दने चारित्रको धर्म कहा है उन्होंने ही सम्यग्दर्शनको धर्मका मूल कहा है। और यही बात आचार्य समन्तभद्र ने कही है कि जैसे बीजके अभावमें वृक्ष नहीं होता-उसकी उत्पत्ति, वृद्धि और फलोदय नहीं होता, वैसे ही सम्यग्दर्शनके अभावमें सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोदय नहीं होते । इसीसे उन्होंने सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके पश्चात् चारित्र धारण करनेकी बात कही है। यही बात आचार्य अमृतचन्द्र ने कही है। समस्त जिनशासन इस विषयमें एकमत है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके बिना सम्यकचारित्र नहीं होता। इन तीनोंकी सम्पूर्णतासे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी पूर्णता होनेपर भी सम्यक्चारित्रकी पूर्णता न होनेसे मोक्ष नहीं होता, उसकी पूर्णता होनेपर ही मोक्ष होता है। अतः यद्यपि चारित्र ही धर्म है। किन्तु चारित्र सम्यक भी होता है और मिथ्या भी होता है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञानके साथ जो चारित्र होता है वह सम्यक् है और वही धर्म है। धर्म शब्दका व्यवहार स्वभावके अर्थमें भी होता है। जैसे अग्निका धर्म उष्णता है। या जीवका धर्म ज्ञानदर्शन है। कोशोंमें धर्मका अर्थ स्वभाव कहा है। अतः वस्तुके स्वभावको भी धर्म कहा है। वैदिक धर्मके साहित्यमें हमने धर्म शब्दका व्यवहार स्वभावके अर्थ में नहीं देखा। किन्तु जैनधार्मिक साहित्यमें वस्तु स्वभावको धर्म कहा है। अर्थात् जैसे चारित्रको धर्म कहा है वैसे ही वस्तु-स्वभावको भी धर्म कहा है। जैसे जीवका चारित्र धर्म है वैसे ही उसका वास्तविक स्वभाव भो धर्म है। उदाहरणके लिए जिस स्वर्णमें मैल होता है वह मलिन होता है । मलिनता स्वर्णका स्वभाव नहीं है वह तो आगन्तुक है, सोने में ताम्बा, राँगा आदिके मेलसे आयी है । स्वर्णका स्वभाव तो पीतता आदि है। उसे उसके स्वभावमें लानेके लिए स्वर्णकार सोनेको तपाकर शुद्ध करता है तो सोना शुद्ध होनेपर चमक उठता है और इस तरह अपने स्वभावको प्राप्त करता है। इसी तरह जीव संसारमें अपनी प्रवृत्तियोंके कारण कर्मबन्धनसे मलिन है। उसके सब स्वाभाविक गुण १. देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ सद्दृष्टिशानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥ २. विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ।।-र. श्री. ३२ । ३. मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंशानः । रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः॥ -र. श्रा. ४७ । ४. विगलितदर्शनमोहै: समञ्जसज्ञानविदिततत्त्वार्थ । . नित्यमपि निष्पकम्पैः सम्यक्चारित्रमालम्ब्यम् ॥-पुरुषार्थ. ३७४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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