Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ १० धर्मामृत (अनगार) विचित्र ढंगसे लिखे गये हैं। त को न और न को त तो प्रायः लिखा है। इसी तरह य को भी गलत ढंगसे लिखा है। च और व की भी ऐसी ही स्थिति है । अन्तिम लिपि प्रशस्ति इस प्रकार है नागद्राधीरालिखितम् ।। संवत् १५४१ वर्षे माहा वदि ३ सोमे अद्येह श्रीगिरिपुरे राउ श्रीगंगदाव्यनिय राज्ये श्रीमूलसंधे सरस्वतीगणे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ. श्रीसुकलकीर्तिदेवा त. भ. श्रीभुवनकीति देवा त. भ. श्रीज्ञानभूषण स्वगुरु भगिनी क्षांतिका गौतमश्री पठनार्थम् ।। शुभं भवतु ॥ कल्याणमस्तु । १.धर्म २. धर्मका अर्थ वैदिक साहित्यमें धर्म शब्द अनेक अर्थों में व्यवहत हुआ है। अथर्व वेदमें ( ९-९-१७) धार्मिक क्रिया संस्कारसे अजित गुणके अर्थ में धर्म शब्दका प्रयोग हुआ है। ऐतरेय ब्राह्मणमें सकल धार्मिक कर्तव्योंके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। छान्दोग्योपनिषद् ( २।२३ ) में धर्मकी तीन शाखाएँ मानी है.-यज्ञ अध्ययन दान, तपस्या और ब्रह्मचारित्व । यहाँ धर्म शब्द आश्रमों के विलक्षण कर्तव्यकी ओर संकेत करता है। तन्त्रवातिकके अनुसार धर्मशास्त्रोंका कार्य है वर्णों और आश्रमोंके धर्मको शिक्षा देना। मनुस्मृतिके व्याख्याता मेधातिथिके अनुसार स्मृतिकारोंने धर्मके पाँच स्वरूप माने हैं-१. वर्णधर्म, २. आश्रमधर्म, ३. वर्णाश्रमधर्म, ४. नैमित्तिकधर्म यथा प्रायश्चित्त, तथा ५. गुणधर्म अर्थात् अभिषिक्त राजाके कर्तव्य । डॉ. काणेने अपने धर्मशास्त्रके इतिहासमें धर्म शब्दका यही अर्थ लिया है। पर्वमीमांसा सूत्रमें जैमिनिने धर्मको वेदविहित प्रेरक लक्षणोंके अर्थ में स्वीकार किया है। अर्थात् वेदोंमें निर्दिष्ट अनुशासनोंके अनुसार चलना ही धर्म है । वैशेषिक सूत्रकारने उसे ही धर्म कहा है जिससे अभ्युदय और निश्रेयसकी प्राप्ति हो । महाभारतके अनुशासन पर्वमें ( ११५-१) अहिंसाको परम धर्म कहा है। और वनपर्व ( ३७३-७६ ) में आनॅशस्यको परम धर्म कहा है। मनुस्मृतिमें (१-१०८) आवारको परम धर्म कहा है। इसी तरह बौद्ध धर्म साहित्यमें भी धर्म शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कहीं-कहीं इसे भगवान बुद्धको सम्पूर्ण शिक्षाका द्योतक माना है। जैन परम्परामें भी धर्म शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत हुआ है। किन्तु उसकी अनेकार्थता वैदिक साहित्य-जैसी नहीं है। धर्मका प्राचीनतम लक्षण आचार्य कुन्दकुन्दके प्रवचनसारमें मिलता है 'चारित्तं खलु धम्मो' चारित्र ही धर्म है । यह मनुस्मृतिके 'आचारः परमो धर्मः' से मिलता हुआ है। किन्तु मनुस्मृतिके आचाररूप परम धर्ममें और कुन्दकुन्दके चारित्रमें बहुत अन्तर है। आचार केवल क्रियाकाण्डरूप है किन्तु चारित्र उसकी निवृत्तिसे प्रतिफलित आन्तरिक प्रवृत्तिरूप है। इसका कथन आगे किया जायेगा। धर्म शब्द संस्कृतकी 'ध' धातुसे निष्पन्न हआ है जिसका अर्थ होता है 'धरना'। इसीसे कहा है 'धारणाद् धर्ममित्याहुः' । धारण करने से धर्म कहते हैं। अर्थात् जो धारण किया जाता है वह धर्म है। किन्तु आचार्य समन्तभद्रने 'जो धरता है वह धर्म है' ऐसा कहा है। जैसे किसी वस्तुको एक स्थानसे उठाकर दूसरे स्थानपर धरना । उसी तरह जो जीवोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धरता है वह धर्म है। इसमें धारणवाली बात भी आ जाती है । जब कोई धर्मको धारण करेगा तभी तो वह उसे संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धरेगा। यदि कोई धर्मको धारण ही नहीं करेगा तो वह उसे संसारके दुःखोसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें धरेगा कैसे ? क्योंकि उत्तम सुखको प्राप्त करने के लिए संसारके दुःखोंसे छुटकारा आवश्यक है। और संसारके दुःखोंसे छूटनेके लिए उन दुःखोंके कारणोंसे छूटना आवश्यक है । अतः जो संसारके दुःखोंके कारणोंको मिटानेमें समर्थ है वही धर्म है। संसारके दुःखोंका कारण है कर्मोंका बन्धन । जो जीवको अपनी ही गलतोका परिणाम है। वह कर्मबन्धन जिससे कटे वही धर्म है। वह कर्मबन्धन कटता है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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