Book Title: Devdravya Nirnay Part 01
Author(s): Manisagar
Publisher: Jinkrupachandrasuri Gyanbhandar

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Page 8
________________ की और झूठ का मिच्छामि दुक्कडं देने की आप प्रतिज्ञा करिये, शास्त्रार्थ के लिये मैं इन्दोर आने को तैयार हूं' इत्यादि उपर की तमाम बातोंको जानते हुए भी समाज को सत्य बात बतलाने के बदले अपने महाव्रत भंग होने का विचार भूलकर उलटी रीतिसे "मणिसागर हजुसुधी इन्दोर आवेल नथी अने तेमना पत्रो थी मालूम पडे छ के ते शास्त्रार्थ करे तेम जणातु नथी" इत्यादि जैन पत्रके अंक 49 वें में विद्याविजयजी के नाम से तार समाचार छपवाकर समाज से धोकाबाजी की, मेरेपर झूटा आक्षेप किया और यही समाचार दूसरी बार फिरभी जैन पत्र के अंक 7 वें में एक अनुभवी के नाम से छपवाये और समाज को अंधेरे में रखा, खूब कपटबाजी खेली. तब मैंने उन्हों को खाचरोद से एक पत्र लिखकर भेजा था, उसकी नकल नीचे मुजब है: देव द्रव्यकी शास्त्रार्थ संबंधी जाहिर सूचना। .: ता. 12 फरवरी सन् 1922 के जैनपत्र में - देव द्रव्य ना शास्त्रार्थ नुं छेवट ' नामके लेख में " मुनि-मणिसागर इन्दोर आया नहीं शास्त्रार्थ किया नहीं और उन के पत्रों पर से शास्त्रार्थ करने का मालुम भी पडता नहीं" ऐसा लेख एक अनुभवीके नामसे छपवाया है, वह सब झूठ हैं, मैंने " देवं द्रव्य संबंधी इन्द्रोरमें शास्त्रार्थ" नामा हेंडबिल छपवा कर श्रीमान् विजयधर्म सूरिजी को इन्दोर रजिष्टरी से भेजा था और वही हेडबिल महावीर पत्रके अंक 18 वें में प्रकट भी हो चुका है. उसमें " शास्त्रार्थ का सत्य निर्णय ग्रहण करनेकी और जिसकी प्ररूपणा झूठी ठहरे उसको उसी समय सभामें अपनी भूलका मिच्छामि दुक्कडं देने संबंधी सही करनेका या अपनी प्ररूपणा को पाछी खींच लेनेका साफ खुलासा लिखा था " उसपर उन्हों ने मौन धारण कर लिया, कुछ भी जवाब नहीं दिया. इस से ' अनिषेध सो अनुमत ' इस कहावत मुजब विजयभर्ममूरिजीने व उन्हों के शिष्योंने देव द्रव्य संबंधी वर्तमानिक अपनी

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