Book Title: Devdravya Nirnay Part 01
Author(s): Manisagar
Publisher: Jinkrupachandrasuri Gyanbhandar

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Page 21
________________ क्रि, वो पत्र यदि खास विशालविजयजी के ही लिखे हुए होवे तो उसके निर्णय के लिये आप समय दें उस समय मैं 1-2 श्रावकों को भेजू. उन्होंके सामने उनसे लिखवाया जावे, उससे शक दूर हो. यदि वो पत्र विशाल विजयजी ने न लिखें होंगे तो कपटतासे झूठा नाम लिखवाने संबंधी आपको व लिखनेवाले दोनोंको मिच्छामि दुक्कडं देना पगा. विशेष सूचना-शास्त्रार्थ में आपका और मेरा वादी प्रतिवादीका संबंध होने से इतना लिखना पडता है. इस में नाराज होने की कोई वात नहीं है, मगर आप बीमार हैं इसलिये मेरे पत्रों से यदि कुछ भी विशेष तकलीफ होती हो तो थोड़े राज के लिये पत्र व्यवहार बंध रखा जावे. इस में कोई हरकत नहीं है. इस बात का जवाब अवश्य लिखवानाजी. संवत् 1979, चैत्र शुदी 9. ह. मुनि-मणिसागर, इन्दोर. - इन्दोर सीटी, वैशाख व. 2, 2448. श्रीयुत मणिसागरजी, . .. ... तुम्हारा पत्र मिला है, तुम्हारी योग्यता (!) को यहां का संघ अच्छी तरह जान गया है. इस से तुम्हारी दाल नहीं गलती, तो हम क्या करें? लेकिन उस क्रोध के मारे, तुम्हार पत्र से मालूम होता है कि, तुम्हारा जीभ लंबी हो रही है. आप आप के गुरुजी को कहकर उ का कुछ उपाय करावें; नहीं तो फिर यदि विशेष लंबी हो जायगी तो दुःख के साथ उसका उपाय हमको करना पडेगा. बस, तुम्हार इस पत्रका उत्तर तो इतनाही काफी है। आपका हितैषी--विशाल विजय. श्रीमान् विजयधर्म सूरिजी, पत्र आपका मिला. अपनी प्ररूपणा शास्त्रार्यमें साबित कर सकते नहीं, इस लिये फजूल झूठी झूठी बातें लिखते हो. मैंने यहां के संघ

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