________________ [42] धर्म के कार्यों में गिनती करने का निषेध करने लगे 16, श्रीवीरप्रभू के . दसरे च्यवनरूप (गर्भापहार) कल्याणका निषेध करने लगे 17, तीर्थोके पंडोकी तरह अपने अपने गच्छके मंदिरोंकी आमदनी खाने लगे, इत्यादि अनेक तरहके चैत्यवासियोंके अनुचित कर्तव्यों का खंडन करते हुए श्रीहरिभद्रसूरिजीमहाराज संबोधप्रकरणादिमें, तथा श्रीजिनवल्लभमूरिजीमहा-. राज धर्मशिक्षा व संघपट्टकादिमें और श्रीजिनदत्तसूरिजीमहाराज गणधर सार्द्ध शतक, चैत्यवंदन कुलक, संदेह दोलावल्यादिमें विस्तारपूर्वक लिख गयेहैं. ऐसे चैत्यवासियोंको पेटभराउ साध्वाभासोंका टोलाकहा है परन्तु संयमी नहीं माने हैं तथा देवद्रव्य के भक्षण करनेवालोंका अनंत संसार वृद्धिका महान् पाप बतलाया है और उचित रीतिसे भावसहित देव द्रव्यकी सार, संभाल, रक्षा व वृद्धि करके भगवान्की भक्ति करनेवालोंको अल्प संसारी होकर यावत् तीर्थंकर गौत्र बांधनेका बडा लाभ बतलाया है, इस बातके ऊपरसे साबित होता है कि यदि चैत्यवासियोंने देवद्रव्य इकठ्ठा करनेका नवीन रिवाज चलाया होता तो श्रीमान् हरिभद्रसूरिजी आदि उक्त महाराज चैत्यवासियों की उपर मुजब अनेक अनुचित बातोंकी तरह देव द्रव्य इकट्ठा करने की बातका भी अवश्यही निषेध करते. जैसे-जैनशासन में अभी चार सौ वर्ष हुए, पुस्तक लिखनेवाले * लुकेलहियेने जिनप्रतिमा को वंदन-पूजन करनेके उत्थापन करने का अपना नवीन मत निकाला और उसकी परंपरावालोंने ढाईसौ वर्ष हुए दिनभर मुंहके ऊपर मुहपत्ति बांध कर ढूंढियोंके नामसे नवीन रिवाज चलाया तो उनके सामने शुद्ध संयमी मुनियोंने आगमों के प्रमाणों से उन्होंके झूठे कल्पित मतका खूब खंडन किया और जिनेश्वर भगवान्की प्रतिमाको साक्षात् श्रीजिनेश्वर भगवान्के समान मान्य करके उनको वंदन-पूजन करनेकी अनादि मर्यादा साबित करके बतलाई है. तथा दिनभर मुंहपत्तिको मुंहके ऊपर बंधी हुई रखना कुलिंगरूप शास्त्रविरुद्ध सिद्ध करके बतलाया और बोलनेकी कल्त उप