Book Title: Devdravya Nirnay Part 01 Author(s): Manisagar Publisher: Jinkrupachandrasuri GyanbhandarPage 89
________________ [39] थे, स्वर्ण हीरा, माणिक, मोती आदि के मुकुटादि आभूषण भी अपनी तरफ से चढाये थे और जितना द्रव्य खर्च करने की जरूरत पडती थी उतना द्रव्य अपनी तरफसे खर्च करते थे तथा उस समयके सब श्रावक लोग भी भक्तिवश पूजा आरती वगैरह की सब सामग्री अपने 2 घरसे मंदिरमें प्रभूकी पूजा के लिये ले जाते थे. और प्रभू की मूर्ति का प्रमार्जन, प्रक्षालन, पूजन आदि सब तरह की सेवा भक्ति अपने अपने हाथोसें ही करते थे इसलिये उस समय जीर्णोद्धारादि कार्यों के लिये स्थाई देव द्रव्य रखने की विशेष कोई भी जरूरत पड़ती नही थी अथवा मंदिर बनवाने वाले मंदिर संबंधी सेवा पूजा सार संभाल जीर्णोद्धारादिक सब तरहका खर्च अपनी अपनी तरफसे चलाते थे इसलिये देवद्रव्य की विशेष जरूरत नहीं पडती थी अथवा आगेवान् धनीक (द्रव्यवान् ) श्रावक अपने नगरके और आसपासके सब मंदिरोंके खर्चेकी सब तरहकी व्यवस्था अपनी 2 तरफसे चलाते थे इसलिये भी उस समय देवद्रव्यकी अभीके जैसी वृद्धि करने की व भंडारादिक में जमा रखनेकी विषेश कोई भी आवश्यकता नहींपडती थी, परंतु जो पूजामें चढाया जाताथा उस देवद्रव्य की मर्यादा से नवीन मंदिर बनाने वगैरहमें व्यवस्था होती थी. इसलिये उस समय चढात्रा करके देव द्रव्य की वृद्धि करने की कोई भी आवश्यकता नहीं थी. बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, विद्याधर जैसे समर्थ जैनी राजा महाराजा और आगेवान् धनीक श्रावक होते रहते थे तबतक तो परंपरा से ऐसी ही व्यवस्था चली आती थी परंतु जबसे परंपरासे जैनी राजा महाराजाओं का अभाव होने लगा और श्रावक लोग भी प्रमादी होकर सेवा पूजाके लिये पूजारी वगैरह नोकर रखने लगे, तबसे पूजा व जीर्णोद्वारादि कार्यों के लिये विषेश स्थाई देवद्रव्य रखने की व्यवस्था होने लगी तब ग्रामादिक की जागीर, व्यापार के नफेका विभाग व चढावा वगैरहसे देव द्रव्य की विशेष वृद्धि होने का शुरू हुआ है इसलिये भरतPage Navigation
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