Book Title: Dashvaikalika Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 5
________________ प्रस्तावना. कपायलिप्त कर्मबन्ध से बन्धे हुए संसारी प्राणियों के हितार्थ जगत हितैपी भगवान् श्री वर्धमान स्वामीने श्रुतचारित्ररूप दो प्रकार का धर्म कहा है । इन दोनों धर्म की आराधना करने वाला मोक्षगति को प्राप्त कर सकता है, इसलिये मुमुक्षु को दोनों धर्मों की आराधना अवश्य करनी चाहिये ! क्यों कि-"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" ज्ञान और क्रिया इन दोनों से मोक्ष होता है । यदि ज्ञान को ही विशेषता देकर क्रिया को गौण कर दिया जाय तो वीतरागकथित श्रुतचारित्र धर्म की आराधना अपूर्ण और अपंग मानी जायगी, और अपूर्ण कार्य से मोक्ष प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है, एतदर्थं वीतरागमणीत सरल और सुबोध मार्ग में निश्चय और व्यवहार दोनों नयों को मानना ही आवश्यक है । कहा भी है "व्यवहारं विना केचिद् भ्रष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् , केवलं व्यवहारतः ॥१॥ द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग् द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चे,-त्युक्तं स्याद्वादवादिभिः ॥२॥ स्याहादके स्वरूप को निरूपण करने वाले भगवानने निश्चय और व्यवहार, इन दोनों को यथास्थान आवश्यक माना है । जैसे दोनों नेत्रों के बिना वस्तु का अवलोकन वरावर नहीं होता है वैसे ही दोनों नयों के विना धर्म का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना जा सकता, और इसी कारण व्यवहार नय के विना केवल निश्चयवादी मोक्ष मार्ग से पतित हो जाते हैं और कितनेकव्यवहारवादी केवल व्यवहार को ही मानकर धर्म से च्युत हो जाते हैं। आत्मा का ध्येय यही है कि सर्व कर्मसे मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करना; परन्तु उसमें कर्मों से छुटकारा पानेके लिये व्यवहाररूप चारित्रक्रिया का आश्रय जरूर लेना पडता है, क्यों कि बिना व्यवहार के कर्मक्षय की

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