Book Title: Dashvaikalik Sutra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 16
________________ ૧ ૨ "श्री दशवकालिकसूत्र भाषांतर महाव्रत : विश्लेषण चतुर्थ अध्ययन में षट्जीवनिकाय का निरूपण है। आचारनिरूपण के पश्चात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस आदि जीवों का विस्तार से निरूपण है। जैनधर्म में अहिंसा का बहुत ही सूक्ष्म विश्लेषण है। विश्व के अन्य विचारकों ने पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि में जहाँ जीव नहीं माने हैं, वहाँ जैन परम्परा में उनमें जीव मानकर उनके विविध भेद-प्रभेदों का भी विस्तार से कथन है। श्रमण साधक विश्व में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं उनकी हिंसा से विरत होता है। श्रमण न स्वयं हिंसा करता है, न हिंसा करवाता है और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन ही करता है। श्रमण हिंसा क्यों नहीं करता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है - हिंसा से और दूसरों को नष्ट करने के संकल्प से उस प्राणी को तो पीड़ा पहुँचती ही है साथ ही स्वयं के आत्मगुणों का भी हनन होता है। आत्मा कर्मों से मलिन बनती है। यही कारण है कि प्रश्नव्याकरण में हिंसा का एक नाम गुणविराधिका मिलता है। श्रमण अहिंसा महाव्रत का पालन करता है। इसकी संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत अध्ययन में है। संयमी श्रमण तीन करण और तीन योग से सचित्त पृथ्वी आदि को न स्वयं नष्ट करे और न सचित्त पृथ्वी पर बैठे और न सचित्त धूल से सने हए आसन का उपयोग करे। वह अचित्त भमि पर आसन आदि को प्रमार्जित कर बैठे। संयमी श्रमण सचित्त जल का भी उपयोग न करे. किन्त उष्ण जल या अचित्त जल का उपयोग करे। किसी भी प्रकार की अग्नि को साधु स्पर्श न करे और न अग्नि को सुलगावे और न बुझावे। इसी प्रकार श्रमण हवा भी न करे, दूध आदि को फूंक से ठंडा न करे। श्रमण तण, वृक्ष, फल, फूल, पत्ते आदि को न तोड़े, न काटे और न उस पर बैठे। श्रमण स्थावर जीवों की तरह त्रस प्राणियों की भी हिंसा मन, वचन और काया से न करे। वह जो भी कार्य करे वह विवेकपूर्वक करे। इतना सावधान रहे कि किसी भी प्रकार की हिंसा न हो। सभी प्रकार के जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। श्रमण स्व और पर दोनों ही प्रकार की हिंसा से मुक्त होता है। काम, क्रोध, मोह,प्रभुति दुषित मनोवृत्तियों के द्वारा आत्मा के स्वगुणों का घात करना स्वहिंसा है और अन्य प्राणियों को कष्ट पहूँचाना पर-हिंसा है। श्रमण स्व और पर दोनों ही प्रकार ही हिंसा से विरत होता है। . ... श्रमण मन, वचन और काय तथा कृत-कारित-अनुमोदन की नव कोटियों सहित असत्य का परित्याग करता है। जिनदासगणी महत्तर के अभिमतानुसार श्रमण को मन, वचन, काया से सत्य पर आरूढ़ होना चाहिए। यदि मन, वचन और काया में एकरूपता नहीं है तो वह मषावाद है।३० जिन शब्दों से दसरे प्राणियों के अन्तर्हदय में व्यथा उत्पन्न होती हो, ऐसे हिंसाकारी और कठोर शब्द भी श्रमण के लिए वर्ण्य हैं और यहाँ तक कि जिस भाषा से हिंसा की सम्भावना हो, ऐसी भाषा का प्रयोग भी वर्जित है। काम, क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य के वशीभूत होकर-पापकारी, निश्चयकारी, दूसरों के मन को कष्ट देने वाली भाषा, भले ही वह मनोविनोद के लिए ही कही गयी हो, श्रमण को नहीं बोलनी चाहिए। इस प्रकार असत्य और अप्रियकारी भाषा का निषेध किया गया है। अहिंसा के बाद सत्य का उल्लेख है। वह इस बात का द्योतक है कि सत्य अहिंसा पर आधृत है। निश्चयकारी भाषा का निषेध इसलिए किया गया है कि वह अहिंसा और अनेकान्त के परीक्षण-प्रस्तर पर खरी नहीं उतरती। सत्य का महत्त्व इतना अधिक है कि उसे भगवान की उपमा से अलंकृत किया गया है, और उसे सम्पूर्ण लोक का सारतत्त्व कहा है।३१ . अस्तेय श्रमण का तृतीय महाव्रत है। श्रमण बिना स्वामी की आज्ञा के एक तिनका भी ग्रहण नहीं ३० निशीथचूर्णि, ३९८८ ३१ प्रश्नव्याकरण सूत्र, २।२

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