Book Title: Dashvaikalik Churni
Author(s): Jindasgani Mahattar,
Publisher: Rushabhdevji Keshrimalji Shwetambar Samstha
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ॐ
X-REC
४.२ उद्देशक:
S
श्रीदश
सेज्जमवि आणज्जा, एवमादि, छन्दो णाम इच्छा भण्णइ, कयाइ अणुदुप्पयोगमवि दव्वं इच्छति, भणियं च-'अण्णस्स पिया वैकालिक
छासी मासी अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिया य बहुडोहलो लोगो ॥१॥ तहा कोई सत्तुए इच्छइ कोति एगरस इच्छइ, देसं वा पप्प अण्णस्स पियं जहा कुदुक्काण कोंकणयाण पेज्जा, उत्तरापहगाणं सत्तुया, एवमादि, 'उवयार'
णाम विधी भण्णइ, जहा कोई धम्मकाहणो कोई वेयावच्चकरस्स केइ भासिणो केइ आसन्नसेविणो एवमादि, उपचारछन्दविनयाध्य.
कालं 'पडिलेहित्ताण हेउहिं ति, पडिलेहित्ता णाम जाणिऊण, हेउणा नाम कारणेण, एतेसिं कालछन्दोवयाराणं जेण २ ॥३१६॥ उवाएण कालछन्दपाउग्गा दव्वा लब्भात जेण वा उवायकरणण तूसइ तेण तेण उवाएण ते तं संपडिवायान्त । किंच-'विवत्ती
अविणीअस्स' ॥४३६॥ सिलोगो, विवत्ती नाम विगया संपत्ती नाणादिगुणेहिं अविणीयस्स भवइ, अद्वेहिं विणीयस्स संपदा भवति, 'जस्सेयं दुहओ णायं' 'जस्स'त्ति अविससियस्स गहणं, दुहओ णाम उभओत्ति वा दुहओत्ति वा एगट्ठा, अविणयायो गुणविवत्ती विणयाओ गुणसंपत्ती भवइत्ति णाय, दुविधं सिक्ख-गहणसिक्ख आसवणासिक्खं च अभिगच्छइ, सिक्खातो य मोक्खं, अभिगच्छइ नाम आभिगच्छतित्ति वा पावइत्ति एगट्ठा, भणिया विणीया। इदीणि आविणीया भन्नति, तेसिणं अवियाणं
अविणयफलं भण्णइ, तंजहा-'जे आवि चंडे' ॥ ४३७ ॥ वृत्तं, 'जे' त्ति अणिद्दिदुस्स गहण, चकार पादपूरणे, अविसद्दो लाभावणे वह, जहा सुट्ट दुलह निवयणिज्जगुणजुत्तमवि जिणाणवयणाणवयणं लधण केवि सत्ता इमेसु दोससु बट्टातात GI एवं संभावयति, चंडो काहणो भण्णइ, जातीए इंड्डिगारवं वहति, जहाऽहं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादे लग्गिहामित्ति मति
इदृशी गारवो भण्णति, पीतिसुण्णं करोतित्ति पिसुणो, सो य जो पच्छा अगुणकित्तणं करेई, नरेसु मोक्खो भवइतिकाऊण णरग
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॥३१६॥

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