Book Title: Chaturvinshati Jinstavan Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: Jain Shastramala Karyalay View full book textPage 8
________________ चतुर्विंशति जिनस्तवन. मन लावसे ॥ ललना ॥ १ ॥ प्रथम विरह प्रभु तुम तणो । ल० । दूजो हो पूर्वधरबेद | देखो गति करमनी । ल० । पंचमकाल कुगुरु वहु । ल० । पास्यो हो जिनमत बहु जेद । वात को तरणकी । ल० ॥ २ ॥ राग द्वेष बेहु मन वसै । ल० । लरे हो जिम सौकण रांग । भूले आत नरममें | ० | अमृत बोर जहर पियै | ल० । लीये हो दुःख जिन मत बांड । वांधे ति करममें | ल० ॥ ३ ॥ करुणा रस नरे थोमले । ल० । संत हो पर डुख जानन हार | फूले सुख हरम में | ल० । मनकी पीर न को सुने । कैसे दो करिये निरधार । प्रभु तुम धरममे । ल० ॥ ४ ॥ एक आधार है मोह जणी | ल० । तुमरे हो आगम परतीत । मन । मुक मोहिया । ल० । अवर नरम सब बोरीया । ल० । धारीहो तुम आण पुनीत | एही जग जोहीया । ल० ॥ ५ ॥ जुग प्रधान पुरष तणी । ल० । रीति हो मुंऊ ř સ્Page Navigation
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