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प्रस्तावना. विदित होके अनादि कालसें प्रचलित दुआ नया ऐसा परमपवित्र जो जैनमत है, परंतु इस ढुंमा अ वसर्पिणी कालमें नस्मग्रहादि अनिष्ट निमित्तोंके मिलनेसें अशुन मिथ्यात्व मोहादि निबिड कर्मों के नदयवाले बहोत जीव होते नये, वो बदुलकर्मी जीवोमेंसे कितनेकने तो अपने कुविकल्पकेही प्र जावसें, और कितनेक तो परनवका जय न रखनेसें मात्र अपने मुखसें जो कोइ वचन निकाला होवे तिसकों कोइ असत्य प्रपंचसेंनी सत्य करके लो कोंके हृदयमें स्थापन करना चाहीयें ऐसें हठ कदाग्रहसें, और कितनेकने तो कोई दूसरेसें U होनेसें उसको जुठा बना कर अपना नाम बडा करनेके लीये, और कितनेकने तो अपने अरु थ पने पदवालेके तरफ धर्म माननेवाले बहोत मनु ष्योंका समुदाय मिले तो पेट नराइ अब्बी तहेसें चले इसी वास्तें मतनेद करके कोइ नवीन पंथ प्रच लित करना ऐसी बुदिसें, इत्यादि औरजी विचित्र प्रकारके हेतुयोंसें यह शुभ आत्मधर्म प्रकाशक जैन
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