Book Title: Chalte Phirte Siddho se Guru
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 5
________________ चलते फिरते सिद्धों से गुरु प्रस्तावना और फिर उन्हें बदलना ही होगा एवं रख रखाव की व्यवस्था भी करनी ही होगी। अत: वस्त्र धारण करने में दीनता-हीनता एवं पराधीनता की संभावना अधिक है। दिगम्बरत्व मुनिराज का भेष या ड्रेस नहीं है, जिसे मनमाने ढंग से जब चाहें तब बदला जा सके। यह तो उसका स्वाभाविक रूप है, स्वरूप है। अपने मन को इसकी स्वाभाविकता स्वीकृत है, एतदर्थ एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्केमिडीज की उस घटना का स्मरण किया जा सकता है, जिसमें वह सारे नगर में नंगा घूमा था। उसके बारे में कहा जाता है कि वह एक वैज्ञानिक सूत्र की खोज में बहुत दिनों से परेशान था। दिन-रात उसी के सोच विचार में डूबा रहता था। एक दिन बाथरूम में नग्न होकर स्नान कर रहा था कि अचानक उसे उस अन्वेषण सूत्र का समाधान मिल गया, जिससे उसके हर्ष का ठिकाना न रहा । वह भावविभोर हो स्नान घर से वैसा नंगा ही निकलकर नगर के बीच से गुजरता हुआ दौड़ता-दौड़ता राजा के पास जा पहुँचा। उसे नग्न देखकर राजा को आश्चर्य भी हो रहा था और हंसी भी आ रही थी। पर उस वैज्ञानिक के लिए वह अस्वाभाविक नहीं था। ऐसी धुन के बिना कोई भी बड़ी शोध-खोज संभव नहीं है। चाहे वह ज्ञान-विज्ञान की हो या सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा की हो। आर्कमिडीज भी अपने धुन का धुनिया था। राजा क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, इसकी परवाह किए बिना वह तो अपनी ही कहे जा रहा था, अपनी उपलब्धि के गीत गाये जा रहा था। अपनी नग्नता पर उसका ध्यान ही नहीं था, दिगम्बर मुनि भी ऐसे ही अपने आत्मा की शोधखोज में इतने मग्न रहते हैं कि उन्हें भी वस्त्र का परिग्रह रखने की न सुधबुध होती है और न ही फुरसत । अत: वे पूर्ण निर्ग्रन्थ ही रहते हैं। दिगम्बरत्व की स्वाभाविकता सहजता और निर्विकारता के साथ उसकी अनिवार्यता से अपरिचित कतिपय महानुभावों को मुनि की नग्नता में असभ्यता और असामाजिकता दृष्टिगोचर होती है। अत: ऐसे लोग नग्नता से नाक-भौं सिकोड़ते रहते हैं, घृणा का भाव भी व्यक्त करते रहते हैं, पर ऐसे व्यक्तियों को नग्नता को निर्विकारता के दृष्टिकोण से देखना चाहिए। हाँ, केवल तन से नग्न होने का नाम दिगम्बरत्व नहीं है, आत्मज्ञान के साथ राग-द्वेष व कामादि विकारों से रहित होकर नग्न होना ही सच्चा दिगम्बरत्व है। ऐसी नग्नता कभी अशिष्टता नहीं हो सकती, लज्जाजनक नहीं हो सकती। निर्विकारी हुए बिना नग्नता निश्चित ही निंदनीय है। हिन्दु धर्म के प्रसिद्ध पौराणिक पुरुष शुक्राचार्य के कथानक से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि ‘तन से नग्नता के साथ मन का निर्विकारी होना कितना आवश्यक है, अन्यथा जो नग्नता पूज्य है वही निंद्य भी हो जाती है। कहा जाता है कि शुकदेव मुनि युवा थे, पर शिशुवत् निर्विकारी थे। अत: सहजभाव से नग्न रहते थे। एक दिन वे एक तालाब के किनारे जा रहे थे, वहाँ देवकन्यायें निर्वस्त्र होकर स्नान व जलक्रीड़ा कर रही थीं, मुनि शुकदेवजी को देखकर वैसे ही स्नान करती रहीं, जरा भी नहीं लजाईं। वे सभी एक-दूसरे की नग्नता से जरा भी प्रभावित नहीं हुए। थोड़ी देर बाद उन्हीं के वयोवृद्ध पिता महर्षि वेदव्यास वहाँ से निकले, उन्हें देखते ही सभी देवकन्यायें लजा गईं। वे न केवल लजाईं बल्कि क्षुब्ध भी हो गईं। जलक्रीड़ा को जलांजलि देकर हड़-बड़ में तालाब से निकली और सबने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये और लज्जा से अपनी सुध-बुध खो बैठीं। एक नंगे युवा को देखकर तो लजाई नहीं और सवस्त्र एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर लजा गई। ___ जरा सोचिए! इसका क्या कारण हो सकता है ? बस यही न कि तन से नंगा युवक मन से भी नंगा था, निर्विकारी था और उसके पिता अभी मन से पूर्ण निर्विकारी नहीं हो सके थे। यह बात नारियों की निगाह से छिपी नहीं रही, रह भी नहीं सकती। कोई कितना भी छिपाये, विकार तो सिर पर चढ़कर बोलता है। उक्ति है - "मुखाकृति कह देत है, मैले मन की बात।"

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