Book Title: Chaityavandan Samayik
Author(s): Atmanandji Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 14
________________ सम्माण पत्तिआए ॥योहिलाभ वत्तिआए, निरुवसग्ग वत्तिआए ॥२॥ सडाए मेहाए धीईए धार'णाए अणुप्पेहाए, वदमाणीए ठामि काउस्सग्गं॥३॥ अर्थ-अरिहन्तकी प्रतिमाओंको (वन्दनार्थ) मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। वन्दन करनेके निमित्त, पूजन करने के निमित्त, प्रत्कार करनेके निमित्त, सम्मान करनेके निमित्त, बोधिलाभके निमित्त, जन्मजगमरणके उपसर्गासे रहित ऐसा मोक्षरूप स्थान पानक निमित्त, श्रद्धासे. निर्मलबुद्धिसे चितकी स्थिरतासे, धारणासे, बार बार अर्थके विचारपूर्वक, चढ़ते हुए भावोंसे काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) करता हूँ। ॥अथ अन्नथ्थ उससिएणं ॥ अन्नथ्य उससिएणं, निससिएणं, खामिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए॥१॥सुहुमेहिं अंगसंचालेहि।। सुहमें हिं खेल संचालेहिं ।। सुहुमेहिं दिहि संचालहिं ।।२॥ एव माइएहिं आगाहिं, अभग्गो, अविराहिओ, हनमे काउस्मग्गो॥ ॥ जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमुक्कारणंन पारेमि ॥४॥ताव कायं ठाणणं, मोणेणं, झाणेण, अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ . . . अर्थ-नीचे लिखे हुए आगारोंके अतिरिक्त और जगह “काय व्यापारका त्याग करता . ऊपरको श्वास लेनेसे नीचेको . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के पाप अनन्यतम शिष्य हैं एवं उनका द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं।

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