Book Title: Chaityavandan Samayik
Author(s): Atmanandji Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैत्यवन्दन सामायिक 200 हिन्दी भाषान्तर सहित पता - 103) मिलने का पता: श्री आत्मानन्द जन पुस्तकप्रचारक मंडल रोशन मुहल्ला, आगरा-सिटी । 'मुन्य आध आना । सन् १९१८ ईस्वी. MAKANS www विक्रम. सं. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्यवंदन सामायिक विधि הה . २ . LA . हिन्दी अर्थ सहित तथा श्रावकका नित्य कृत्य। ॥ अथ नमस्कारमंत्र :: नमो अरिहंताणं ॥१॥ नमो सिहाणं ||२|| नमो आयरियाणं नमो उवज्झायाणं ॥४i. नमो लाए सव्वसाहणं ॥२॥ एसोपंच नमुकारो ॥६॥ सव्वपावप्पणासणो ॥७॥ मंगलाणां च सव्वसिं ॥८॥ पढमं हवइ मंगल ॥९॥ अर्थ-बारह गुणों सहित और चार घानि वर्मक हनने वाले ऐसे अरिहन्त भगवान्को (मेरा) नमस्कार हो । आठ कमौका क्षय करके मोक्षमें पहुंचे हुए अर्थात् आठ गुणों से युक्त ऐन सिद्ध भावानको (मेरा) नमस्कार हो । छत्तीस गुणों से संयुक्त ऐमें आचार्य महाराजको (मेरा) नमस्कार हो। पर्चस गुणोंवाले उपाध्याय महाराजको (मेरा) नमस्कार हो । अढ़ाईद्वीप प्रमाण, मनुष्यलोकमें रहे हुए सत्ताईस गुणोंसे शोभित, ऐसे मुनिरानोंको मेरा) नमस्कार हो। ये उपरोक्त पांच (परमेष्ठी) नमस्कार, सर्व पापोंका नाश करने वाले हैं। यह नवकार मंत्र सर्व मंगलोंमें प्रथम मंगल है। . . Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमंदिरमेंद्रव्य और भावपूजा करनेकी संक्षेप विधि श्री जिनमन्दिरमें जाकर द्वारमें प्रवेश करके पहले "निम्सहिः (सांसारिक सावध कार्य छोड़ने रूप ) कहना चाहिये। मन्दिरजीका काम (कान) व कचग जाला वगैग्हकी सम्हाल (स्वयम् करने योग्य हो सो आप करे और अन्यम काने योग्य हो सो अन्यसे करावे) दूसरी "निम्सहिः" करके मंदिर कार्य छोड़कर तीन प्रदक्षिणा भगवान्के दाहिनी जीमणी तरफसे यानी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रकी आराधनारूर दनी चाहिये । ____ यदि प्रमुकी अङ्गपूजा करनी हो तो शरीर शुद्धि (शुद्ध छने हुवे जलसे सनान) तथा शुद्ध (उमदा) वस्त्र पहनकर नुस्कोश बांधके पीछे तीन प्रदक्षिणा उपरोक्त विधिपूर्वक देका जिनमन्दिरमें कचरा साफ़कर मयूर पिच्छसे प्रमुकी अङ्गप्रमार्जना करके जीवनंतुकी रक्षा । करनी चाहिये। . भगवान्की डावी बाजू धूप खेवना, तथा दाहिनी बाजू घृतका फानसमें दीपक करना चाहिये। 'पंचामृत' से प्रक्षालकर शुद्ध जलसे स्नान कराके तीन अङ्गलूहणा करके केसर-चंदन बराससे नव अङ्गपूजा'x करनी पीछे शुद्ध पंचवर्णके पुष्प चढ़ाकर हार और मुकुट कुंडल आभूपण अङ्गरचनादि । धारण कराना चाहिये। * दूध, दधि, घृत, शक्कर, जल, पंचामृत कहा जाता है। ४ २ चरण, २ घूटन, २ पोंचे, २ खंवे, (कंधे) मस्तक, ललाट, . कंठ, हृदय,, और नाभि, यह नौ अंग गिने जाते हैं। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕܪ अष्ट द्रव्य* आदिसे अग्र पूजा करके आरती मङ्गदीक उतारकर पीछे चतुर्गति निवारणरूप चावलका स्वस्तिक (साथिया ) 'करके ऊपर सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, और सम्यकूंचारित्रं रूप तीन पुंज (हगली) बनाकर ऊपर चन्द्राकार सिद्ध शिला बनाकर सिद्धरूप ढगली उसके ऊपर करके फल चढ़ाना चाहिये । वचन, तीसरी " निस्सहिः " कहके भात्र पूजा करनी यानी मन, और कायारूप तीन मासमणा करना । ॥ अथ खमासमण ॥ इच्छामि खमासमणो बंदिऊं जावणिज्जाए निसीहि आए मध्धरण वंदामि ॥ (विधि) यह मन, वचन, कायारूप तीनवार खमासंपणा देकर स्त्रीको भगवान्के बांई (डावी) तरफ पुरुषको दाहिनी (जीमणी) बाजु डात्रा गोडा ऊंचा कर बैटके विधिपूर्वक चैत्यवंदन करना । अर्थ - हे क्षमाश्रमण ! मैं पाप व्यापारका निषेध करके शरीरकी शक्तिसे आपके चरण कमलोंमें इच्छा करके नमस्कार करता - मस्त कसे वंदना करता हूँ । विधि - यह पाठ वीतराग देव और गुरु महाराजके सम्मुख खड़े हो दोनों हाथ जोड़ पंचांग ( दो हाथ, दो घुटने और पांचवां . मस्तक ) जमीन से लगाकर वंदना करनेका है । *नवण (जल) विलेपन, कुसुम, (पुष्प) धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, और फल, यह अष्टद्रव्य हैं । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥अथ जगचिंतामणि चैत्यवंदन ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन करूं इच्छं। विधि-(एसा आदेश लेकर डाबा गोडा ऊंचा कर बैठके) जगचिंतामणि जगनाह जगगुरु जगरकखण । जगबंधव जगसथ्यवाह जगभाव विअक्खण ॥ अट्ठावयमंठविअरूव कम्मट्ट विणासण। चवीसंपि जिणवर जयंतु अप्पडि हयसासण ॥१॥ कम्ममूमिहिं कम्म भूमिहि। पढम संघयणि उक्कोसंय अत्तरिसय जिणवराण विहरतलब्भइ ॥नवकोडिहिं केवलीण कोड सहस्स नव साहु, गम्मइ । संपइ जिणवर वीस मुणि बिहुँकोडिहिं वरनाण समणह कोडिसहस्स दुअ थुणिजिअनिच्च विहाणि ॥२॥ जयउ सामी जयउ सामी रिसह सत्तुंजि, उर्जित पहुने भिजिण ॥ जय वीर सच्चरिमंडण, भरूअच्छहिं मुणिसुन्वय मुहरिपास दुह दुरिअखंडण, अवर विदेहितिथ्थयरा ॥ चिहुंदिसि विदिसि जिंकेत्रि तीआणागयसंपइअ ॥ वंदु जिण सव्वेवि ॥३॥ सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अठकोडीओ। बत्तीसयबासिआई, तिअलोए चेइए वंदे ॥४॥ पनरसकोडिसयाई, कोडिबायाल लक्ख अडवन्ना।। छत्तीस सहस्स आसियाई, सासयबिंबाई पणमामि ॥५॥ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 9 ) (नोट) - इसके बदले और भी चैत्यवंदन इच्छा होवे सो बोल सकते हैं । अर्थ - नगको अर्थात् भञ्यनीवोंको मन इच्छित पदार्थ देते P इस लिए प्रभु चिंतामणि रत्न समान हैं। धर्म रहित भव्यजीवों को धर्ममें लगानेसे तथा धर्मवालोंके धर्म की रक्षा करनेसे प्रभु नाथ हैं । हितोपदेश देते हैं इसलिए प्रभु गुरु - (बड़े) हैं । षट्काय के जीवोंकी रक्षा करनेसे प्रभु रक्षक हैं । सब जीवोंका हित चितवन करने से मुभाईके समान हैं । भव्यजीवों को निरुपद्रवपणे मोक्ष नगर पहुंचाते हैं । इसलिए प्रभु सार्थवाह हैं। तीन लोक में रहे हुए नत्र तत्त्वादि पदार्थों को केवलज्ञान द्वारा अच्छीतरह समझाते हैं, इस: लिए प्रभु विचक्षण हैं । जिन्होंकी मूर्त्तिये भरत राजाने अष्टापद ) पर्वत ऊपर स्थापन की है, जिन्होंने आठों ही कर्मोंका नाश किया है और जिन्होंकी शासन - शिक्षाकों कोई भी नहीं हरण कर मकता हैं ऐसे ऋषभदेवादि चौवीस जिनेश्वर जयवंता वर्त्तो ॥ १ ॥ जिल भूमिमें राज सता, व्यापार और खेतीवाडी आदि कर्म करने के साधन हैं ऐसी पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन पंद्रह कर्म भूमियों में पहेले संघयणवाले - जिसको वज्रऋषभनाराच कहते हैं और जिसके बराबर और कोई शरीर मजबूत तथा ताकत - चर नहीं हो सकता है ऐसे शरीवाले - उत्कृष्ट यानी ज्यादहमें ज्यादह ऐकसो सत्तर जिनेश्वर, नवक्रोड़ केवलज्ञानी, और नक हजार क्रोड़ साधु पूर्वकालमें - श्री अजितनाथजीके समयमें- विचरते प्राप्त होते थे, यह बात जिनागमसे मालुम होती है । आजकलके समयमें बीस जिनेश्वर, दो क्रोड़ केवलज्ञानी, और दो हजार क्रोह Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु इन्होंकी हमेशा सुबहके वक्त स्तुति करते हैं ॥ २ ॥ शत्रुन.. यतीर्थपर श्रीऋषभदेव स्वामी जयवंता वत्"। (उजित)गिरनार-तीर्थपर श्री नेमनाथ स्वामी जयवंता व। सत्य पुरीसाचोरके शोभाभूत श्री महावीरस्वामी जयवंता वर्तो । भरूचमें श्री मुनिसुव्रत स्वामी और मुखरी गांवमें श्री पार्श्वनाथ स्वामी यह पात्रो ही जिनेश्वर दुःख तथा पापको नाश करनेवाले हैं और भी जैसे कि महाविदेह आदि. पांत्र विदेह, पूर्व आदि चार दिशाएँ, अभिनेग आदि चार विदिशाएँ और अतीत, अनागत तथा वर्तमान इस बने जो कोई जिनेश्वर विद्यमान हो उन सब निसको मैं वंदना करता हूं ॥ ३ ॥ आठ कोड़ छप्पन लाख सत्ता हमार बत्तीस सौं व्यासी इतने तीन लोक संबधी मंदिरोंको मैं पं.ना अ.रता हूं ॥ ४ । पंद्रह अन्न बयालीम क्रोड़ अठ्ठावन शाख छत्तीस हजार अस्सी इतनी शाश्वती जिन प्रतिमाको बंदना करता हूं ॥५॥ ॥ज किंचि ॥ जं किंचि नाम तिथं, सग्गे पायालि माणुसे लोए । जाइं जिण बिंबाई, ताई सव्वाइं वंदामि ॥१॥ -अथै—जो कोई नाम (रूप) तीर्थ हैं, स्वर्गमें, पातालमें, और मनुष्यलोकमें, जो तीर्थङ्करोंके वित्र हैं, उन सबको मैं नमस्कार कस्ता हूँ। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। नमुथ्थुणं (शकस्तव) . नमुट्युणं, अरिहंताणं, भगवंताणं ॥१॥ आइगराणं तिथ्ययराणं सयं संबुद्धाणं ॥२॥पुरिसुत्तमाणं पुरिसलीहाणं पुरिसवर पुंडरीआणं, पुरिसवर गंधहथ्विणं ।३॥ लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोग हिआणं लोगपईवाणं लोगफ्जोअगराणं ॥४॥ अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं वोहिदयाणं| ५॥ धम्मदयाणं धम्मदेसियाणं, धम्मनायगाणं धम्ममारहीणं धम्मवरचाउरंत चक्कवटीणं ॥६॥ अप्पडिहय वरनाण दसण धराणं, विअह छउमाणं णाजिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं बुहाणं बाह्याणं मुत्ताणं मोअगाणं ॥८॥सव्वन्नुणं सव्व दरिसिणं सिव मयल मरुअ मणंत भक्खय मव्वाचाह मपुण रावित्ति सिद्धि गइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं नमो जिणाणं जिअभयाणं ॥९॥ जे अईआसिद्धा, जेअ भाविस्संतिणागए काले संपइअवमाणा, सव्वे तिविहेण वदामि ॥१०॥ अर्थ-अरिहन्त भगवानको नमस्कार हो। जो धर्मकी आदि करनेवाले हैं, तीर्थके स्थापन करनेवाले हैं, स्वयंबोध पाने वाले हैं, पुरुषों में उत्तमः पुंडरिक कमल समान हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ गंधहस्ति समान हैं, लोकमें उत्तम हैं, लोकके नाथं हैं, लोकका' - - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हित करनेवाले हैं, लोकमें दीपक समान हैं, लोकमें प्रकाश करनेवाले हैं, अभय दान देनेवाले हैं, श्रुतज्ञान रूप चक्षुके देनेवाले हैं, मोक्षमार्गके देनेवाले हैं, शरण देनेवाले हैं, समकित देनेवाले हैं, धर्मके दाता हैं, धर्मके उपदेशक हैं, धर्मके नायक हैं, धर्मके सारथी .. चारगतिका अंत करनेवाले श्रेष्ठ धर्म चक्रवर्ती हैं, पीछे नहीं जानेवाले ऐसे उत्तम केवलज्ञान, केवल दर्शनके धारक हैं, जिनकी छमस्थावस्था दूर हुई है, रागद्वेपको जीतने और जीतानेवाले हैं, संसारसे तरने और तरानेवाले हैं, तत्त्वके जाननेवाले हैं (तया) जनानेवाले हैं, कर्मसे मुक्त और मुक्त करानेवाले हैं, सब जानने वाले हैं, सब. देनेवाले हैं, उपद्रव रहित, निश्चल, निरोग, अनन्त, अक्षय, अव्यावाध अर्थात् पीड़ा रहित, जो पुनरागमसे रहित हैं, ऐसी सिद्ध गति है नाम जिसका, ऐसे स्थानको प्राप्त किये हुए हैं। उन रागद्वेषके क्षय करनेवालों (और) सब भयादिक जीतनेवालोंको (मेरा) नमस्कार हो । जो अतीत कालमें सिद्ध हुए, जो अनागतकालमें सिद्ध होंगे (और, जो वर्तमानकाल (महाविदेह क्षत्र)में होते हैं, उन सबको त्रिविध ( मन, वचन और काया) से मैं वन्दन करता हूँ। . . ॥ जावंति चेइआई ॥ जावंतिचेइआई, उद्वेअ अहेअतिरिअलोएम ॥ . सव्वाइं ताई वंदे, इह संतो तथ्थ संताई ॥१॥ : अर्थ-जितने भगवान्के मन्दिर प्रतिमाएं हैं, उर्वलोकमें iiii क लोकमें, उन सत्रको यहाँ रहा . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) हुआ, वहां जो प्रतिमाएं हैं, उनको मैं वंदन करता हूँ। । . विधि-एक खमासमण देकर आगेका पाठ पढ़ना । ॥ जावन्त केवि साहु॥ जावन्त केविसाहु, भरहरवय महाविदेहे ॥ मव्वेसिंतेसिंपणओ,तिविहण तिदंड विरयाणं॥१॥ अर्थ-नितने कोई साधु है, पांच भरत, पांच ऐरावत (और) पांच महाविदेह, इन १५ क्षेत्रों में, उन सबको (मेग) नमकार हो । (मन, वचन और कायासे) जो तीन दंड ( अशुभ मन, बचन और काय ) से रहित हैं। ॥परमेष्ठि नमस्कार ॥ . नमोऽर्हतसिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः। · अर्थ-अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वमाधुओंको (मेरा) नमस्कार हो। नोट-स्त्रीवर्गको इमके बनाए १ नवकार पढ़ना चाहिये । .. ॥ उपसर्गहर (स्तोत्र) स्तवन ॥ उसग्गहरं पासं, पासंवंदामि कम्मघणमुक्कं॥ विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्याण आवासं ॥१॥ विसहर फुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ। तस्सग्गह, रोग, मारी, दुजरा जति उवसामं ॥२॥ 'चिठ्ठउ दूरे मंतो, तुझ पणामोवि फलो होइः॥ - - Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - नरतिरिए सुवि जीवा, पावंति न दुख दोगचं ॥३॥ तुह सम्मत्ते लडे, चिन्तामणि कप्पपाय वन्भहिए। पावति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं॥४ाइअसं. शुओ महायस, भत्तिप्भर निप्भरण हिआएण |ता देवदिज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ॥६॥ (नोट) ईसके बदले यहां दूसरे स्तवन इच्छा हो वैसे बोल सकते हैं.। अर्थ-उपसर्गका हरनेवाला पार्श्व नामका यक्ष सेवक है जिनवा, ऐसे श्रीपाश्र्धनाथ स्वामीको मैं वन्दन करता हूँ। जो कर्म समुहसे गक्त हैं, सर्पके विपको अतिशयसे नाश करनेवाले हैं, मंगल कल्याणके घर हैं, विषहर स्फुलिंग मंत्रको जो कोई , मनुष्य सदैव कंठमें धारण करता है, उनके दुष्ट ग्रह, रोग, मरकी, दृष्ट ज्वर नाश होते हैं। यह मंत्र तो दूर रहा (किन्तु) आपको किया हुआ नमस्कार भी बहुत फल देता है। मनुष्य, तिर्यचमें भी जीव दुःख, दरेद्रता नहीं पाते । जो आपका सम्यक्त्वदर्शन पाते हैं, वह (दर्शन) चिन्तामणिरत्न (और) कल्पवृक्ष से भी अधिक है। भव्य जीव अजर अमर स्थानक (मुक्ति) को निर्विघ्नतासें पाते हैं। हे महायश ! इस प्रकार यह स्तवना करी । भक्ति समूहसे परिपूर्ण, अन्तःकरणसे हे देव ! बोधि बीज जन्मः जन्ममें हें पार्थनिनचन्द्र ! मुझे दो। विधि-बांदमें और भी कोई स्तवन पढ़ना हो वह पढ़कर, भंगलियोंको बराबर मिलाकर (जैसे: मोती: भरी हुई सीप सम्पुट: Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ((its होती है इस प्रकारसे) हाथ जोड़ कर मस्तकसें लगाकर "जयवीयराय" पढ़ना चाहिए । ॥ जयवीयराय ॥ जयवीयराय जगगुरु होउ ममं तुह पभावओ भयवं । भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठ फल सिद्धि ||१|| लोग विरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परथ्थकरणंच ॥ सुह गुरु जोगां तव्वय, ण सेवणां आभवमखंडा ॥२॥ वारिज्जइ जविनिआ ण बंधगं वीयराय तुह समए ॥ तहवि मम हुज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, समाहि मरणं च बोहि लाभोअ ॥ संपजउ मह एअं, तुह नाह पणाम करणेणं ॥ ४ ॥ सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण कारणं ॥ प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५ ॥ विधि--- बाद में पैरोंके अंगूठोंके पास चार अंगुलका और एडियों के पास इससे कुछ कम फासला रख कर खड़े होकर हाथोंसे योगमुद्रा साधन करते हुए शेप विधि करना चाहिए । ॥ अरिहन्त चेइयाणं ॥ अरिहन्त चेइयाणं करेमि काउस्सग्गं ॥ १ ॥ वंदण वत्तिआए, पूअण वत्तिआए ॥ सक्कार वत्तिआए, * यहां तक पढ़कर आगेकी गाथाएं मुख आगे दाथ करके पढ़ना । .. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्माण पत्तिआए ॥योहिलाभ वत्तिआए, निरुवसग्ग वत्तिआए ॥२॥ सडाए मेहाए धीईए धार'णाए अणुप्पेहाए, वदमाणीए ठामि काउस्सग्गं॥३॥ अर्थ-अरिहन्तकी प्रतिमाओंको (वन्दनार्थ) मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। वन्दन करनेके निमित्त, पूजन करने के निमित्त, प्रत्कार करनेके निमित्त, सम्मान करनेके निमित्त, बोधिलाभके निमित्त, जन्मजगमरणके उपसर्गासे रहित ऐसा मोक्षरूप स्थान पानक निमित्त, श्रद्धासे. निर्मलबुद्धिसे चितकी स्थिरतासे, धारणासे, बार बार अर्थके विचारपूर्वक, चढ़ते हुए भावोंसे काउस्सग्ग (कायोत्सर्ग) करता हूँ। ॥अथ अन्नथ्थ उससिएणं ॥ अन्नथ्य उससिएणं, निससिएणं, खामिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्तमुच्छाए॥१॥सुहुमेहिं अंगसंचालेहि।। सुहमें हिं खेल संचालेहिं ।। सुहुमेहिं दिहि संचालहिं ।।२॥ एव माइएहिं आगाहिं, अभग्गो, अविराहिओ, हनमे काउस्मग्गो॥ ॥ जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, नमुक्कारणंन पारेमि ॥४॥ताव कायं ठाणणं, मोणेणं, झाणेण, अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ . . . अर्थ-नीचे लिखे हुए आगारोंके अतिरिक्त और जगह “काय व्यापारका त्याग करता . ऊपरको श्वास लेनेसे नीचेको . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के पाप अनन्यतम शिष्य हैं एवं उनका द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास लेनेसे. खांसी मानेसे, छींक आनेसे, जमाही (बगासी) आनेसे, डमार आनेसे, नीचेकी वायु सग्नेसे, चक्कर आनेसे, पित्तके प्रकोपसे मूळ आजावे, अंगके सूक्ष्म संचारसे सूक्ष्म थूक. अथवा कफ आनेसे सुक्ष्म दृष्टिके संचारसे, इन । पूर्वोक्त वारह आगारोंको आदि लेकर अन्य आगारोंसे अखंडित, अविगधित. (सम्पूर्ण ) मुझे काउस्सग होवे। जहांतक अरिहंत भगवंती नमः स्कार करता हुआ न पारूँ, वहांतक कायाको एक स्थानमें मौन रखकर नवकार आदिक ध्यानमें लीन होनेके लिए आत्माको वोसिराता हूँ। एक नवकारका कायोत्सर्ग करना. चाहिए। का समाग पूरा हो जानेपर “नमोअरिहंताणं" कह कर पारना और * नमोऽईत' सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः कह कर नीचे लिखी स्तुति कहनी चाहिए। ॥ कल्लाण कंदं स्तुति ॥ कल्लाण कंदं पढमंजिणंद, संति तओ नेमिजिणं मुर्णिदं ॥ पासं पयासं सुगुणिक टाणं, भत्तीय वंदे सिरि बदमाणं ॥१॥ . (विधी)-इसके बदले दूसरी स्तुति इच्छा हो वैसी बोल सकते हैं। अर्थ-कल्याणके मूल श्री प्रथम जिनेश्वरको, श्री शान्ति . (नोट) स्त्रीयोंको यह न कह कर केवल (नमो अरिहंता'ण करके स्तुति रहना चाहिये। - - Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथको तथा मुनियोंके इन्द्र श्री नेमिनाथको, त्रिभुवनमें प्रकाश करनेवाले श्री पार्श्वनाथको अच्छे गुणोंके एक अद्वितीय स्थानक ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामीको (मैं) भक्तिपूर्वक वन्दना करता हूँ.। . (विधि)-पीछे यदि प्रत्याख्यान करना हो तो इच्छामि खमासमणो० पूर्वक नवकारसीसे चउविआहार उपवास पर्यन्त यथाशक्ति पच्चरखाण करें। . ॥ नमुक्कारसहि मुठिसहिका पञ्चक्खाण ॥ उग्गए सूरे, नमुक्कारसहिअं मुंडिसहि पञ्चक्खाइ । चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं । अन्नथणा भोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहि वत्तिआगारेणं वोसिरामि ।। अर्थ--(उग्गए सूरे) सूर्योदयसे दो घड़ी पीछे नम्मुक्कारमहिअं मुद्विसहिअं पञ्चक्खाइ नवकार कहके मुठीवालके पारू वहां •तक नियम है ( यहां नवकार कहके मुठिवालके पञ्चवखाण पारना है इसलिये इसको नोकारसी मुडिसी कहते है। ___ (मुठिसहि)का मतलब यह है के जहां तक पच्चक्खाण पालकर मूठि न खोलुं वहां तक पञ्चवखाण रहै। चौविहंपि आहारं अशन (अन्न) पाणं (पानी) खाइमं (मेवा दूध आदि).साइमं (पान सोफारी इलायची आदि स्थादिष्ट) इन चार आहारका पञ्चक्खाण करनेमें चार प्रकारके आगार कहे हैं। __ अन्नथणा भोगेणं ( भूलसे अथवा विना उपयोगसे भांगा लगे तो दूषण नहीं] . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतम . . . एव उ.. द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में प्रापका प्रभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियाँ प्रापकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... सहा-सागारेणं. ( कोई भी कार्य करते अकस्मात् अथवा स्वभाविक मुंहमें कोई चीज आवे तो दूषण नहीं.. जसे के सकर तोते समय उड़कर मुहमें आवे या बरसातकी फुवारे वगेरे। . . महत्तरागारेणं, कोई महत्कार्य उस वृत पञ्चखाणके फलसे भी अधिक फल देखकर वृहत्पुरषोंके कहनेसे भंग लगे तो दूषण नहीं। सत्वसमाहिवत्तिया गारेणं. कोई बड़ी बीमारीसे असमाधि अथवा सादिक काटनेसे वेहोस (मूर्छित हो जानेसे दवाई कोई देवे तो दूषण नहीं । गुरुवोसिरे कहे. परन्तु पञ्चक्खाण लेनेवालेको वोसिरामी कहना चाहिये । इसके बाद कोई भी स्तोत्र अथवा स्तुतिके श्लोक इच्छा हो तो कहे । बादमें और भी आसपास वहां प्रतिमा विराजमान हो तो जाकर तीन खमासणादि नमस्कार करे। त्रिकाल पूजन करना भी शास्त्रमें कहा है सो यथाशक्ती करने योग्य है। · . पीछे तीनवार 'आवस्सहि (इसका मतलब यह कि जो प्रतिज्ञा करी थी उसकी छुट हुई ) कहके घंटा बजाते हुए जैनालयसे बाहर जाना चाहिये। श्री मंदिरजीमे जघन्यसे १० मध्यम ४२ और उत्कृष्ट ८४ आसातना वर्जना चाहिये। - दश बड़ी आसातनाके नाम । १ तांबूल (पानखाना) २ पानी (जलपीना) ३ भोजन (खाना) ४ उपानह (जोड़ा) ५ मैथुन ( कामचेष्टा) ६ शयन (सोना) ७.थूकना (खुखार ):८ मात्रा ( पेसाब करनी) याने Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुनीत ९ उचार (दस्त करना ) याने बड़ी नीत १० जुवटे (जुवा खेलना' यानी तास चोपट मतरंज कोडीये पासे वगैरे। हथियार लकड़ी बूट जोडी आदि वे अदबी की चीजें तथा गनकथा, देशक्या श्री क्था, भोजन कथा अर्थात् पापयुक्त वार्तालाप आदि जिनमंदिरमें अवश्य त्यागना चाहिये । ८४ आसातना दूसरे ग्रंथोंसे जान लेनी ।। गुरु महाराजको वन्दन करनेकी विधि ॥ . मन्दिर में दर्शन करने के बाद, यदि पंचमहावतोंके धारन करनेवाले, और पंच समिति तिन गुप्ति दशविधयति धर्मके पालन करनेवाले ऐसे निग्रन्थ निस्पृह गुरुका योग हो तो, उनके चरणकमलों में वन्दना करने के लिए नाना, जिसकी विधि नाचे लिखे अनुसार है। ' - प्रथम दो खमासमण देकर खड़े हो इच्छकारी "सुहराइ०” का पाठ पढ़े। ॥ अथ सुगुरुको सुखसाता पूछना ॥ . इच्छाकारि सुहराइ सुहदेवम'. सुखनप, शर निरावाध, सुखसंयमयात्रा निर्वहते होजी ? स्वामी साता है जी ? आहार (भक्त) पानीका लाभ देना नी । __ अर्थ-इच्छापूर्वक हे गुरुजी ! आप सुखसे रात्रिमें, सुखसे दिनमें, सुखसे तपश्चर्यामें, शरीर सम्बंधी निरोगतामें, सुखसे संयम यात्रा धारण करते होजी ? स्वामी साता है जी? आहार पानीका • लाम देनाजी और फिर एक खमासमण देकर अमुहिमओमि पड़े। पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतमः . ९ . . . द्वारा सम्पन्न माध्यात्मिक क्रान्ति में प्रापका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) - ॥अथ अन्भुठिओ॥.. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अन्भुटिओमि अभितर देवसिखामे ? इच्छंखामेमि देवसि विधि-आगेका पाट पञ्चांग निचे झुकाके दाहीना (जीमना) हाथ नीचे स्थापकर वोटनका है। जंकिंचि अपत्ति, परपत्तिअं, भत्ते पाणे, विणए,वेआवच्चे आलावे संलावे उच्चासणे समासणे अंतरभासाए उवरीभासाए, जंकिंचि मज्झविणय परिहीणं सुहुमंवा वायरंवा । तुन्भेजाणह, अहं न याणामि तस्स मिच्छामि दुकडं। अर्थ-हे भगवन् ! (अपनी) इच्छा करके आदेश दो तो दिवसमें किये हुए अपराधोंको खमानेके लिये मैं खड़ा हुश हूं। (तब गुरु कहें 'खामेह' अर्थात् समाओ) फिर आगे कहना कि मैं भी यही चाहता हूँ। दिवस सम्बंधी पापोंको खमाता हुँ जो कोई अग्रीतिभाव, विशेष अग्रीतिभाव उत्पन्न किया हो, आहार में, पानीमें विनयमें, वैयावृत्तमें, एकबार बोलाने में, वारम्वार वोलाने में आपसे उच्च आसन पर बैठनेमें, आपके बरावर आसनपर बैठनेमें, आपके बीचमें बोलनमें आपकी कही हुई बात विशेषतासे कहनेमें जो कोई मैंने अविनय किया हो, छोटा अथवा बड़ा, आप जानते हैं, मैं नहीं जानता वे मेरे सर्व पाप मिथ्या होवें। विधि-फिर यदि पचवखाण करना हो तो एक खमासमण देके खडे होकर गुरु मुस्खसे लेना चाहिए। और जब घर आवे तो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवम्वनका समय पूरा होनेपर (जैसे नवकारसीका सूर्योदय होनेसे २ घडी पुरी होजाव जव, पोरसीका एक प्रहर होनेपर इसी प्रकार और ग गुरु म्यले जान लेना) मुठी बंद कर तीन नवकार गिनना निा मतलब पंचक्खान पारना है) पीछे मुंहमें अन्नानी डालना चाहिए। इति स्वार्थ सहित गुरु वंदनविधि समाप्त । (नेट) शुभेसे दुहरेरतक देवसिों की जगह राइभं कहना और दुपेरसे रात तक देवमिअं कहना MARATTA LARSca. : पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतम शिष्य हैं एवं .. द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) ॥ अथसामायिक | संसार जीव अनादिकालसे भवभ्रम में पड़े रहने के कारण प्रायः 'अधिकांश मोक्षप्राप्तिके साधनभूत शुद्ध चारित्रको ग्रहण नहीं कर सकते, अथवा यों कहा जाय कि मनुष्योंका अधिक वर्ग कर्मचक्के वशीभूत होकर संयम धारण नहीं कर सकता; इस कारण परमोपकारी भगवानने मनुष्य मात्रको प्रतिदिन कमसे कम २ घड़ी (१८ मिनिट) "तक "सामायिक" करनेके लिये इस कारण फरमाया है कि, भव्य जीव सामायिकके समय साधुके समान हो जानेसे अपनी शुभ भावनाओंके द्वारा कर्मोकी निर्जरा करता हुआ अन्तमें अपनी आत्माका शुद्ध स्वरूप पहचान कर "शिव सुख" की प्राप्ति करे । सामायिक लेनेकी विधि | श्रावक श्राविकाओंको सामायिक लेनेसे पहले शुद्ध वस्त्र पहनना चाहिए। और अपने सामने एक ऊंचे आसनपर धार्मिक ग्रंथ या जमाला आदि रखकर जमीन को साफकर (जीव जन्तुओंको वरजको चरवलादिसें पूंजकर) जो पुस्तकादि रखे हैं, उनसे एक हाथ चार अंगुल दूर आसन ( बैठका) बिछाकर और चला, हपत्ति लेकर शान्त चित्तसे वैठकेर बाएं (डाचे ) हाथमें मुहपत्ति रखकर सीधे ( जीमने ) हाथको स्थापन किये हुए ग्रंथादिके सम्मुख उलटा रखके एक नवकार मंत्र पढ़ना चाहिए । बादमें ." पंचिदिअ संवरणो " की पाठउच्चारण करें । ( जो · 4t · १ बने वहा तक सामायिक खड़े २ लेना चाहिये । -२ ये संक्षेपमें दिये हुए नामोंके पाठ आगे दिये हुए पाठों जानने चाहिये | Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) गुरुके स्थापना चार्य हों तो उनके सामने इस पाठके पढ़नकी आवश्यकता नहीं) पीछे “ इच्छामि खमा समणो" देकर “इरिया वही" "तस्स उत्तरी" "अन्नध्य ऊससिएणं" कहकर एक ' लोगस्स" अथवा चार " नवकारका कायोत्सर्ग करना चाहिए । काउसग्ग पूर्ण होनेपर " नमो अरिहंताणं" कहकर काउसग्ग पारे और प्रकट लोगास कह कर " इच्छामि खमासमणो " कह कर. " इच्छा कारण संदिसह भगवन् सामायिक मुहपत्ति पडिलेहुं ? इच्छं" इस प्रकार कह कर पचास बोल सहित झुके हुए. बैठकर मुहपत्तिकी पडिलेहना ( प्रतिलेखना) करनी चाहिए। फिर खमासमणा पूर्वक “ इच्छा कारेण संदिसह भगवन् सामा-- यिक संदिसाहुं इच्छं" कहे । फिर * " इञ्छमि खमा० इच्छा.. भगवन् सामायिक ठाऊं ? इच्छं " कहकर खड़े हो दोनों हाथको जोड़कर एक नवकार पढ़कर गुरुके सामने इच्छाकारि भगवन् पसायकरी सामायिक दंडक उच्चरावोजी ऐसे कहना चाहिए। फिर गुरु न हो तो अपनेसे जो गुणोंमें बड़ा हो, या निसने पहिलेसे सामायिक ली हुई हो उनसे 'करेमिभंते' का पाठ उच्चारण करनेके लिए प्रार्थना करनी चाहिए, यदि अपने सिवाय और कोई न हो तो उपरोक्त रीत्यानुसार "करेमिमते" का * जहां " इच्छामि०" लिखा है वहां-" इच्छामि खमासमणो वन्दिडं जावाणजाए निसीहिआए मथ्यएण वंदामि " यह खमासमणा समझना चाहिए । और जहां " इच्छा०" लिखा हो वहां " इच्छाकारेण संदिसह भगवन् " ऐसे समझना चाहिए। पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतम शिष्य है एवं उनक द्वारा सम्पन्न आध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों प्रापकी सूझ-बूझ एवं । सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) 'पाठ स्वयं उचर लेना चाहिए। फिर " इच्छामि खमा० इच्छा० भगवन् वेठणं संदिसाहुं इच्छं " फिर " इच्छामि खमा० इच्छा० भगवन् वेठणे ठाऊ ? इच्छं" फिर "इच्छामि खमा० इच्छा० भावन् सन्झाय संदिसाहु ? इच्छं" फिर इच्छामि खमा० इच्छा० भगवन् सज्झाय करूं ? इच्छं" कहने के पश्चात् तीन नवकार पढ़कर दो घड़ी याने ४८ मिनिट तक धर्म ध्यान स्वाध्याय करना चाहिए। ॥अथ पंचिंदिअ॥ पंचिंदिअ संवरणो, तह नव विह यंभचेर गुत्तिधरो ॥ चउविह कसायमुक्को, इअ अट्ठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंच महव्वय जुत्तो, पंचविहायारपालण समथ्थो ॥ पंच समिओ तिगुत्तो, छत्तीस गुणो गुरु मज्झ ॥२॥ इनके वाद खमासणा देना । अर्थ-शरीर, जिह्वा, नाक, आँख और कान इन पांच इन्द्रियोंके तेईस विषय उनके जो दो सो वावन विकार, उनको रोकना ये पांच गुण । तथा नव प्रकारसे शीलवतकी गुप्ति धारण करनी ये नौ गुण । क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कपायोंसे मुक्त होना ये चार गुण । इन उपरोक्त अठारह गुणोंसे १ पासमें चर्वला हो तो सामायिकमें खड़े होना और " करेमि भंते" का पाठ उच्चारण करना चाहिए, अन्यथा बैठे हुए ही सामायिक लेनी (उचरनी ) चाहिए । - - Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) सयुक्त, जीव हिंसा न करना, झूठ न बोलना, चोरी न करनी,. स्त्री सेवन न करना और परिग्रह न रखना, इन . पांच महाव्रतोंसे भूपित ये पांच गुण । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच प्रकारके आचार पालन करनेमें समर्थ हों ये पांच गुण । चलने में, बोलने में, खानेमें पीनेमें चीज़ उठाने रखनमें, और मल मूत्र परठनेमें विवेकसे कार्य करना, जिसमें किसी जीवका नाश न हो, ये पांच समिति और मन, वचन, कायको वशमें रखना' ये तीन गुप्ति इन आठोंको वरावर पालें ये आठ गुण । इन छत्तीस गुणों करके जो युक्त होवे सो मेरे गुरु हैं। ॥अथ खमासमण ॥ इच्छामि खमासमणो, वंदिडं जावणिजाए, निसीहिआएं, मथ्थएण वंदामि ॥ ऐसा कहकर पीछे इरिया वहि० तस्स उत्तरी अन्नस्थ उससिपणं० तक कहना। अर्थ-हे क्षमाश्रमण ! मैं पाप व्यवहारका निषेध करके शरीरकी शक्तिसे आपके चरण कमलोंमें इच्छा करके नमस्कार करता हूँ-मस्तकसे वंदना करता हूँ। विधि-यह पाठ वीतराग देव और गुरु महारानके और सामायिकके समयमें स्थापनाचार्य जो पुस्तक विगैरे रक्खा हो उनके सम्मुख खड़े हो दोनों हाथ जोड़ पंचांग (दो हाथ, दो घुटने और पांचवां मस्तक ) जमीनसे लगाकर वन्दनाः करनेका है। साना- साना r ow द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में प्रापका अभूतपूर्व योगदान है। उनके. मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों प्रापकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1 ) ॥ अथ इरिया वहियं ॥ _इच्छा कारेण संदिसह भगवन् इरियावहियं पडिकमामि ? इच्छं, इच्छामि पडिकभि ॥२॥ इरियावहियाए विराहणाए ॥ २॥ गमणा गमणे, ॥ ॥ पाणकमणे, वीयकमणे, हरिचकमणे, ओसा, उत्तिंग पणग दग, मट्टी, मकडा, संताणा, नंकमणे, ॥ ४॥ जे मे जीवा विराहिया ॥५॥ एगिदिया, वे इंदिया, ते इंदिया, चरिंदिया, पंचिंदिया ॥६॥ अभिया, वत्तिया, लेसिया, संघाझ्या, संघ. टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणा ओ ठाणं सकामिया, जीवियाओ, ववरोदिया, तस्म मिच्छामि दुक्कडं ॥ ७ ॥ अर्थ- हे भगवन् ! (अपनी) इच्छापूर्वक आदेश दो (तो) रास्ते चलत जो पाप लगा होवे उससे मैं निवर्ते : (तब गुरू कहे पडिक्कमह-निवौं) आपकी आज्ञा प्रमाण हैं, मैं मेरे मनकी इच्छापूर्वक पापसे निवर्तनकी इच्छा करता हूँ।मार्गमें चलते जिन जीवोंकी विराधना हुई होवे, जाने आनमें जो कोई नीव खूदे, सुके हरे वीज खूदे, हरी बनस्पति बूंदी, ओसको, चिटियोंके विलोंको, पांच रंगकी काई-नील फूलन आदिको कच्चे पानीको, सचित्तमिट्टीको, मकडीके जालोंको मसलायाखूदा, जिन जीवोंकी मैंने विराधना की या दुःख दिया हो, एक इन्द्रियबाले-पृथ्वी, जल, अग्नि वायु. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) और वनस्पति, दोइन्द्रिय-शंख, जलोक, कृमि, लारीए। ते इन्द्रिय-मांकड, कानखजूरे, ज, उघड, कुन्थु मकोडा। चौरिन्द्रिय विच्छ, भ्रमर, मांखी, दीडि, डांस, पञ्चेन्द्रिय-देव, मनुष्य तीर्यचादि सामने आते हुओंको मारे, जमीनके साथ मसले, एक दूसरेको इकट्ठे किये, छूकर दुःख दिया, परिताप दिया, थका कर मुर्दा किये, उपद्रव किया, एक स्थानसे दूसरे स्थान पर रखे, आयुप्यसे चुकाए हों। (इन संबंधी) जो कोई पाप लगा हो वह मेरा निष्फल होवे । ॥ तस्स उत्तरी॥ तस्स उत्तरी करणेणं, पायच्छिल करणणं, विसोही करणेणं, बिमल्ली करणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्टाए, ठामि काउस्सग्गं ॥ ? ॥ अर्थ-उस पापको शुद्ध करनेके लिए, उसका प्रायश्चित (आलोयणा) करनेके लिए, आत्माको शुद्ध करने के लिए, आत्माको शश्य (माया नियाण और मिथ्यात्वस) रहित करनेके लिए, पारकर्माका नाश करनेके लिए, मैं कायन्यापारका त्याग करने रूप कायोत्सर्ग करता हूं। ॥ अथ अन्नथ्थ उससिएणं ॥ अन्नथ्थ अससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलिए, पित्त तुच्छाए॥ १ ॥ सुहमेहिं अंग संबालेहि . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतम शिष्य है एवं उनक द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) सुहमेहिं खेल संचालहिं॥ सुहुमेहिं दिहिसंचालेहि ॥२॥ एवमाइएहिं आगारोह, अभग्गो, अविरा'हिओ, हुज मे काउस्सग्गो ॥३॥ जाव अरिहंताणं 'भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि ॥४॥ तावकार्य ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ विधि-यहां तक कहकर एक लोगस्सका या चार नवकारका काउस्सग्ग करना पिछे नमो अरिहन्ताण कहके काउसग्ग पारकर प्रगट लोगस्त कहना- २057/14661) . अर्थ-नीचे लिखे हुए आगारोंसें अतिरिक्त (और) जगह कायन्यापारका त्याग करता हूँ। ऊपरको श्वास लेनेसे, नीचेको श्वास लेनेसे, खांसी आनेसे, छींक आनेसे, जमाही ( बगासी) आनेसे, डकार आनेसे, नीचेकी वायु सरनेसे, चक्कर आनेसे, पित्तके प्रकोपसे मूर्छा आजानेसे, अंगके सूक्ष्म संचारसे, सूक्ष्म थूक अथवा कफ आनेसे, सूक्ष्म दृष्टिके संचारसे, इन पूर्वोक्त बारह आगारोंको आदि लेकर अन्य आगारोंसे अखंडित अविराधित (सम्पूर्ण) मुझे काउस्सग होवे । जहांतक अरिहंत भगवंतको नम.. स्कार करता हुआ न पाळं, वहांतक कायाको एक स्थानमें मौन रखकर, नवकार आदिके ध्यानमें लीन होनेके लिए आत्माको वोसिराता हूं। ॥ लोगस्स ॥ लोगस्स उज्जोअगरे,धम्मतिथ्थयरे जिणे ॥ अरिहंते कित्तइस्सं, चउविसंपिकेवली॥१॥ उसभ मजिअं Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च ॥ पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल सिजंस वासुपुज्नं च ॥ विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिंच वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च भालिं, वंदे मुणिसुव्ययं नमिजिणं च ॥ वंदामि रिष्टनेमि, पासं तह वहमाणं च ।। ४ ॥ एवं मए अभिथुआ, विहयरयमला पहीण जरमरणा ॥ चउवीसंपि जिणवरा, तिथ्ययरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्त उत्तमा सिद्धा॥ आरुग्गवोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु. ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा,आइचेसु अहियं पयासयरा सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ विधि-इसके बाद इच्छामि खमा० देका इच्छाकारेग संदिसह भगवन् सामायिक मुहपत्ति पडिलेहुं इच्छं० कहकर मुहपत्ति पड़ीलेहना. इसके बीचमें मुहपत्तिके बोल बोलना । (मुहपत्ति पडिलेहण विधिके ५० वोल) १ मूत्रअर्थ तत्त्वकरी सद्दहूं ( दृष्टि पडिलेहणा) ३ सम्यक्त्व मोहिनी, मिश्रमोहिनी, मिथ्यात्वमोहिनी परिहरु। ३ कामराग, स्नेहराग, दष्टिराग परिहरु । (ये छः बोल मुहपत्तिको उलट पलट करते समय . . . . बोलने चाहिये।) . . ३ सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरूं। . . . . . . पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतमाशष्य ह एपण द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उन मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियां आपकी सूझ-बूझ ए सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। - Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) ३ कुदेव, कुगुरु, कुधर्म परिहरु । ३ ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरूं । ३. ज्ञान विराधना, दर्शन विराधना, चारित्र विराधना परिहीं। ३ मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरुं ! ३ मनदंड, वचनदंड, कायदंड परिहरु । (ये अठारह बोल, बाएं हाथकी हथेलीमें कहने चाहिये) यहां तकके पच्चीस बोल मुहपत्ति पढिलेनेके हैं। न.चेके पच्चीस बोल शरीर पढिलेनेके हैं :३ हास्य, रति, अाति परिहरुं ( बाई भुजा पढिलेते ) ३ भयं, शोक, दुगंछा परिहरु ( दाई मुजा पढिलेते ) ३ कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु (ललाटपर) ३ रिद्धिगारव, रसगारव, सातागारव परिहरु (मुखपर) ३ मायाशल्य, नियाणाशल्य, मिच्छादसणशल्य परिहरु ___ (हृदयपर) २ क्रोध, मान परिहरू (बाईमुनाके पीछे)। २ माया, लोभ परिहरूं (दाहिनी भुजाके पीछे)। ३ पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकायकी रक्षा करूं (चर्वलेसे. बाए पैर पर)। वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकायकी यतना करूं(चर्वलेसे दाहिने पैर पर) इन वोलोंको किस प्रकारसे कहने चाहिये, इसकी विशेषः समझ किसी जानकारसे मालूम करना उचित है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८) . पुरुषोंको ये ५० बोल ही कहने चाहिए; परन्तु स्त्रियोंको ३ लेश्या, ३ शल्य, और ४ कपाय इन दश वोलोंके सिवाय (विना) ४० ही कहने चाहिए। फिर खमासणा देकर इच्छाकारेण संदिसह भागवन् सामायिक संदिसाहूं ? ' इच्छं' कहे, फिर इच्छामि खमा० इच्छा० भगवन् . सामायिक ठाउं 'इच्छं। कहके खड़े होकर दोनो हाथ जोड 'एक नवकार पढकर इच्छकारी भगवन् पसाय करी सामायिक दंडक उच्चरावोजी ऐसा कहकर अपने ही (स्वयं) अथवा गुरुमुखसे करेमि भन्ते उच्चरे या उच्चरावे । ___ अर्थ-लोकको केवलज्ञान द्वारा उद्योत करनेवाले, धर्मतीर्थके प्रवर्त्तानेवाले, रागद्वेषको जीतनेवाले, कर्मरूप शत्रुको हनन करनेवालोंकी ( मैं ) स्तुति करता हूँ जो केवलज्ञानी हैं ऐसे। चौवीस तीर्थकरादिकी । (१) श्री ऋपभदेव तथा (२) अजितनाथको वन्दन करता हूँ। तथा (३) संभवनाथ (४) अभिनन्दन और (५) सुमतिनाथको (६) पद्मप्रभ (७) सुपार्श्वनाथ तथा राग द्वेष जीतनेवाले चन्द्रप्रभको वन्दन करता हूं। (२) सुविधिनाथ तथा (पुष्पदन्त) ऐसे दो नाम हैं जिनके (१०) शीतलनाथ, (११) श्रेयांसनाथ, तथा (१२) वासुपूज्य स्वामीको (१३) विमलनाथ, (१४) अनन्तनाथको, जो रागद्वेषके जीतनेवाले हैं (१५) धर्मनाथ, (१६) शान्तिनाथको मैं वन्दन करता हूँ। (१७) कुंथुनाथ, (१८) अरनाथ तथा (१९) मल्लिनाथको (२०) मुनिसुव्रतस्वामी (२१) नमिनाथको (२२) अरिष्ट नेमिको मैं वन्दन करता हूं। (२३) पार्श्वनाथ (२४) श्री वर्धमान (महावीर) - पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के प्रापअनन्यतमाशयह एप उगा द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं 'सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। - - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) स्वामीको मैं वंदन करता हूँ। इस प्रकारसे मैंने स्तवना की, जिन्होंने ! कर्मरूप रज मैल दूर किये हैं, जिन्होंने जरा और मरणके दुःख क्षय कर दिये हैं ये चौवीस तीर्थङ्कर रागद्वेषको जीतनेवाले मेरेपर प्रसन्न हो । जिनकी कीर्ति की, वन्दना की, पूजा की, जो लोगों में उत्तम सिद्ध भगवान हुए हैं, वे (मुझे) आरोग्यता, समकितका लाभ (और) उत्कृष्ट प्रधान समाधि दें । चन्द्रसमुदाय से अधिकनिर्मल सूर्य समुदाय से अधिक प्रकाश करनेवाले ( स्वयंभूरमण ) समुद्र जैसे गंभीर, ऐसे सिद्ध परमात्मा मुझे मुक्ति दो । ॥ अथ सामायिकका पञ्चक्खाण || करोमि भते सामाइयं, सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जान नियमं पज्जुवासामि, दुविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स भते पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ इसके बाद इच्छामिखमासमणो ० इच्छा कारेण संदिस्सह • भगवन् बेसणे संदिसाहुं ? ' इच्छं ' इच्छामि खमासमणो ० इच्छा० बेसणे ठाउं इच्छं इच्छामि खमासमणों० इच्छा० 1 सज्झाय संदि साहुं ? ' इच्छं ' फिर इच्छामि खमासमणो ० इच्छा० सज्झाय करूं ? ' इच्छं ' पीछे तीन नवकार पढ़कर दो घड़ी ( ४८ मिनिट ) तक धर्मध्यान - स्वाध्यायादिक करे पीछे पारे देखो विविमें । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) अर्थ-हे भगवन्त! में समताप सामायिक करता है। 'पाप सहित जोग (मन, वचन और काय)का त्याग करताहुं । जहां तक उस नियमकी उपासना करूं वहां तक दो कारणसे करना नहीं। तीन योगस मन, वचन और काय करके न करूंगा और न करा. ऊंगा, इस वातकी प्रतिज्ञा करके, हे भगवान् ! मैं उस पापसे निवृत्त होता हूं। उसकी निंदा करता हूं और गुरुकं सामने प्रकट कह कर विशेप निन्दा करता हुआ, उससे आत्माको वोसिराता हूं। सामायिक पारनेको विधि । "इच्छामि खमासमण" कहकर "इरियावही" से लगाकर एक "लोगस्सका काउमग तथा प्रकट लोगस्स" तक कहके "इच्छामिखमा० इच्छा० मुहपत्ति पडिले हुँ इच्छं" कहकर मुहपत्ति पडि लेनेके बाद "इच्छामि खना० इच्छा० समाइअपारेमि ? * "यथाशक्ति" जि इच्छामि खमा० इच्छा० सामायिअंपारि" "तहत्ति' इस प्रकार कहकर दक्षिण (दाहिने) हाथको चर्वले या आसन पर रखकर मस्तकको झुकाते हुए एक नवकार मंत्र पढ़कर "सामाइयवयजुत्तो" पढ़े । पीछे x दक्षिण (जिमना ) हायको सीधा स्थापनाचार्यकी तरफ करके एक नवकार पढ़ना चाहिए। * यदि गुरुमहाराजके समक्ष यह विधि की जाय तो "पुणोवि'कायवं" इतना गुरुमहाराजके कहे वाद " यथाशक्ति " कहना । ' इसी प्रकार दूसरे आदेशमें गुरुमहाराज कहे "आयारो न मोत्तबो" इतना कहे बाद "तहत्ति' कहना चाहिए । : स्यापनाचार्य यदि पुस्तक मालासे स्थापन किये हो तो इसकी आवश्यक्ता है, अन्य था नहीं । : पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामा काप मनाया - rrrr. द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उनके । मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ एवं 'सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) ॥ सामायिक पारनेकी गाथा ॥ सामाइय वयजुत्तो, जाव मणे होइ नियम संजुत्तो ।। छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइअ जत्ति आवारा ॥१॥ सामाइ अंमिउ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा ॥ एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुजा ॥ २॥ सामायिक विधिसे लिया विधिले पारा । विधि करते जो कोई अविधि हुवा हो वै वह सब मनवचन काय कर मिच्छामि ___ अर्थ-पामायिक व्रतसे युक्त नहां तक उस नियमसे सहित हो वहां तक अशुभ कर्मका छेदन करता है। (जितनी वार सामायिक करे उतनी बार) इसलिए सामायिक करते समय साधुके जैसा ही श्रावक भी है। इस कारणसे बहुत वार सामायिक करना चाहिए। सामायिक विधिप्से लिया विधिसे पारा, विधि करते जो कुछ अविधि हुई हो वह सब मन, वचन, काय कर मिच्छामि दुक्कडं । (नोट) " सामायिक विधिमें आए हुए शब्दोंका अर्थ" इच्छ-आपकी आज्ञा प्रमाण है। सामायिक संदिसाहुं-मुझे सामायि करनेका आदेश दो। सामायिक ठाउं-मैं सामायिककी स्थापना करता हूँ। इच्छकारी भगवन् ! पसायकरी सामायिक दंडक उच्चरावोजी-हे भगवन् ! अपनी इच्छा पूर्वक कृपा करके सामायिक व्रतका पाठ उच्चरावोजी (फरमाइए) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेठणे संदिसाहुं-मुझे आसनपर बैठनेका आदेश दो। वेठणे ठाऊं-मैं आसनपर बैठता हूँ। सन्झाय संदिसाहुं-मुझे स्वाध्याय करनेका आदेश दो। सज्झाय करूं-मैं स्वाध्याय करता हूं। सामाइभ पारेमि-मैं सामायिक पारता हूँ। पुणोविकायन्वं-( गुरु कहे ) फिर भी करो। यथा शक्ति- जैसी मेरी शक्ति होगी। सामाइझं पारिअं-मैंने सामायिक पारली आयारो न मोत्तन्वो ( गुरु कहे ) आचार ( सामायिक ) त्यागने योग्य नहीं है। तहत्ति-आपका कहना ठीक है। इच्छाकारेण संदिसह भगवन्-हे भगवन् ( अपनी ) इच्छापूर्वक आदेश दो। इति सामायिक सूत्र हिन्दी अर्थ सहित समाप्त । VIRA - पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के प्रोप अनन्यतमाशयह ... द्वारा सम्पन्न आध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उन मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियों आपकी सूझ-बूझ ए सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- _