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(२६) च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च ॥ पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥२॥ सुविहिं च पुप्फदंतं, सीअल सिजंस वासुपुज्नं च ॥ विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिंच वंदामि ॥३॥ कुंथु अरं च भालिं, वंदे मुणिसुव्ययं नमिजिणं च ॥ वंदामि रिष्टनेमि, पासं तह वहमाणं च ।। ४ ॥ एवं मए अभिथुआ, विहयरयमला पहीण जरमरणा ॥ चउवीसंपि जिणवरा, तिथ्ययरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय वंदिय महिया, जे ए लोगस्त उत्तमा सिद्धा॥ आरुग्गवोहिलाभ, समाहिवरमुत्तमं दितु. ॥६॥ चंदेसु निम्मलयरा,आइचेसु अहियं पयासयरा सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥
विधि-इसके बाद इच्छामि खमा० देका इच्छाकारेग संदिसह भगवन् सामायिक मुहपत्ति पडिलेहुं इच्छं० कहकर मुहपत्ति पड़ीलेहना. इसके बीचमें मुहपत्तिके बोल बोलना । (मुहपत्ति पडिलेहण विधिके ५० वोल) १ मूत्रअर्थ तत्त्वकरी सद्दहूं ( दृष्टि पडिलेहणा) ३ सम्यक्त्व मोहिनी, मिश्रमोहिनी, मिथ्यात्वमोहिनी परिहरु। ३ कामराग, स्नेहराग, दष्टिराग परिहरु ।
(ये छः बोल मुहपत्तिको उलट पलट करते समय . . . . बोलने चाहिये।) . .
३ सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरूं। . . . . . .
पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के आप अनन्यतमाशष्य ह एपण द्वारा सम्पन्न प्राध्यात्मिक क्रान्ति में आपका अभूतपूर्व योगदान है। उन मिशन की जयपुर से संचालित समस्त गतिविधियां आपकी सूझ-बूझ ए सफल संचालन का ही सुपरिणाम हैं।
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