Book Title: Chaityavandan Samayik
Author(s): Atmanandji Jain Pustak Pracharak Mandal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 27
________________ (२५) सुहमेहिं खेल संचालहिं॥ सुहुमेहिं दिहिसंचालेहि ॥२॥ एवमाइएहिं आगारोह, अभग्गो, अविरा'हिओ, हुज मे काउस्सग्गो ॥३॥ जाव अरिहंताणं 'भगवंताणं, नमुक्कारेणं न पारेमि ॥४॥ तावकार्य ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि ॥५॥ विधि-यहां तक कहकर एक लोगस्सका या चार नवकारका काउस्सग्ग करना पिछे नमो अरिहन्ताण कहके काउसग्ग पारकर प्रगट लोगस्त कहना- २057/14661) . अर्थ-नीचे लिखे हुए आगारोंसें अतिरिक्त (और) जगह कायन्यापारका त्याग करता हूँ। ऊपरको श्वास लेनेसे, नीचेको श्वास लेनेसे, खांसी आनेसे, छींक आनेसे, जमाही ( बगासी) आनेसे, डकार आनेसे, नीचेकी वायु सरनेसे, चक्कर आनेसे, पित्तके प्रकोपसे मूर्छा आजानेसे, अंगके सूक्ष्म संचारसे, सूक्ष्म थूक अथवा कफ आनेसे, सूक्ष्म दृष्टिके संचारसे, इन पूर्वोक्त बारह आगारोंको आदि लेकर अन्य आगारोंसे अखंडित अविराधित (सम्पूर्ण) मुझे काउस्सग होवे । जहांतक अरिहंत भगवंतको नम.. स्कार करता हुआ न पाळं, वहांतक कायाको एक स्थानमें मौन रखकर, नवकार आदिके ध्यानमें लीन होनेके लिए आत्माको वोसिराता हूं। ॥ लोगस्स ॥ लोगस्स उज्जोअगरे,धम्मतिथ्थयरे जिणे ॥ अरिहंते कित्तइस्सं, चउविसंपिकेवली॥१॥ उसभ मजिअं

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