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बुद्धि-विलास
[ २७ कवित' प्रथम कुमर पदई मैं बड़ी जंग जीत्यौ, प्रतापीक : कूट्यौ दल दषिनी कौ, गहें सर चाप सौ। बूंदी जिन रूदो कोटावारे पर डंड लयो,
सवही सराहत सवाई भयो वाप सौं॥ विरचि बचेंगे न मवासे महि मंडल मैं,
संमृति विचारि जे वचेंगे जय जाप सौं। सवाई ईस्वरसिंघ महाराज नरनाह,
रांग भयो रांनां तेरे पावक प्रताप सौं ॥१७२॥ दोहा : वहुरि पाटि वैठे नृपति, रामपुरे ते प्राय ।
भाई माधवस्यंघ जू, दुरजन कौं दुषदाय ॥१७३॥ कवित्त : जिन रामपुरे मैं करी निज चाकरी,
सो धरि राषी विचारि हिये। फिरि पाय के राज ढुंढाहर को,
सु नऊ निधि के सुष प्रांनि लिये ॥ भनि 'राम' पातें भले ही भलें,
अमरेस के से निनु दान दिये। हरि ऐक सुदामां निवाज्यो' कहूं,
नृप माधव केई सुदामा किये ॥१७४॥ सोरठा : दिये दिवाये दांन, जस प्रगट्यो दसहूं' दिसनि ।
उवै जगत परि भांन,राज कियो यममुलक परि ॥१७॥ प्रागै नृपति अनंत, जतन किये प्रायो' न गढ ।
रणथंभौर महंत, सौ माधव सहजै लह्यौ ॥१७६॥ कवित्त : अंसी मौज कढत सवाई माधवेस कर,
सुवरन-झर ज्यौं प्रवाह नदी नद के।
१७२ : १ कवित्त । २ दक्षिनी। ३ भयो। ४ ईश्वरस्यंघ । ५ महाराजि । १७४ : १ वाज्यौ। १७५ : १ दसहौं। २ कियौ। ३ इम । १७६ : १ प्रायौ। २ लयौ । १७७ : १कबित्त अन्योक्त।
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