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बुद्धि-विलास
कही, थोड़े काल मकार' |
थल गति मैं से वहु जोजन चाले वहुरि, मंत्र तंत्र उपचार ॥१२५२ ॥ इंद्रजाल गति मैं कह्यौ, इंद्रजाल को भेद ।
वरनन होय ।
यहै पंचमी सोय ' ॥१२५५॥
मंत्र मंत्र विद्या भगल, सो लषिऐ कही रूप गति चूलिका, मैं नर स्वर' धारन-हारे रूपके, मंत्र जंत्र है प्रकास गति चूलिका, तामैं गगन गमन के मंत्र कौ, यह तो अंग प्रविष्ट कौं, कीन्हौं कथन वनाय । वषतरांम ताक नमैं, मन वच तन सिर नाय ॥१२५६ ॥ अंग वाह्य जो गुर कह्यौं, सुरत ग्यांन को भेद । है प्रकीर्ण चौदह तरणे, अक्षर सुरिण तजि वेद ॥१२५७॥ आठ कोडि इक लाष है, आठ सहस सत ऐक ।
धरहु पिचेहतरि ऊपरैं, गिरिग करि अंक विवेक ॥ १२५८ ॥ कहौं प्रकीर्णक चौदहौं, तिनके भेद कछूक तिनको सबै सलूक ॥१२५६ ॥ सांमायक प्रतिसार ।
सतूति ।
सोहू भवि सुनि लेहु अव, प्रथम प्रकीर्णक नांम है, तामैं सव वरनन कियो, सांमायक विसतार ॥ १२६० ॥ जो सतवन नाम है, ताकै मद्धि तीर्थंकर चौवीस की, वरनी वंदन कहिऐ तीसरो, तामैं इक तीर्थकर की करी, सो लीजे पहिचांनि ॥१२६२ ॥ चतु प्रतिकर्मरण में कियो, दोष करण सव दूरि । ताकौ हैं व्याष्यांन सव, अव सुनि पंचम भूरि ॥१२६३ ॥ नयक नांम वरनन सुनहु, दरसन ग्यांन चरित्र ।
महा प्रभूति ॥ १२६१ ॥ सतूति जांनि ।
तप ऐ च्यारि प्रकार कौ, भाष्यौ विनय पवित्र ॥ १२६४ ॥
१२५२ : १ मभारि ।
१२५४ : १ सुर । १२५५ : १ जोय । १२६२ : १A पहचांनि ।
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२ सिंहादि ।
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तजि वेद ॥ १२५३ ॥
स्यंघादि २ ।
तंत्रादि ॥१२५४ ॥
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