Book Title: Buddhivilas
Author(s): Padmadhar Pathak
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 179
________________ १४८ ] बुद्धि-विलास कही, थोड़े काल मकार' | थल गति मैं से वहु जोजन चाले वहुरि, मंत्र तंत्र उपचार ॥१२५२ ॥ इंद्रजाल गति मैं कह्यौ, इंद्रजाल को भेद । वरनन होय । यहै पंचमी सोय ' ॥१२५५॥ मंत्र मंत्र विद्या भगल, सो लषिऐ कही रूप गति चूलिका, मैं नर स्वर' धारन-हारे रूपके, मंत्र जंत्र है प्रकास गति चूलिका, तामैं गगन गमन के मंत्र कौ, यह तो अंग प्रविष्ट कौं, कीन्हौं कथन वनाय । वषतरांम ताक नमैं, मन वच तन सिर नाय ॥१२५६ ॥ अंग वाह्य जो गुर कह्यौं, सुरत ग्यांन को भेद । है प्रकीर्ण चौदह तरणे, अक्षर सुरिण तजि वेद ॥१२५७॥ आठ कोडि इक लाष है, आठ सहस सत ऐक । धरहु पिचेहतरि ऊपरैं, गिरिग करि अंक विवेक ॥ १२५८ ॥ कहौं प्रकीर्णक चौदहौं, तिनके भेद कछूक तिनको सबै सलूक ॥१२५६ ॥ सांमायक प्रतिसार । सतूति । सोहू भवि सुनि लेहु अव, प्रथम प्रकीर्णक नांम है, तामैं सव वरनन कियो, सांमायक विसतार ॥ १२६० ॥ जो सतवन नाम है, ताकै मद्धि तीर्थंकर चौवीस की, वरनी वंदन कहिऐ तीसरो, तामैं इक तीर्थकर की करी, सो लीजे पहिचांनि ॥१२६२ ॥ चतु प्रतिकर्मरण में कियो, दोष करण सव दूरि । ताकौ हैं व्याष्यांन सव, अव सुनि पंचम भूरि ॥१२६३ ॥ नयक नांम वरनन सुनहु, दरसन ग्यांन चरित्र । महा प्रभूति ॥ १२६१ ॥ सतूति जांनि । तप ऐ च्यारि प्रकार कौ, भाष्यौ विनय पवित्र ॥ १२६४ ॥ १२५२ : १ मभारि । १२५४ : १ सुर । १२५५ : १ जोय । १२६२ : १A पहचांनि । Jain Education International २ सिंहादि । For Private & Personal Use Only तजि वेद ॥ १२५३ ॥ स्यंघादि २ । तंत्रादि ॥१२५४ ॥ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214