Book Title: Buddhivilas
Author(s): Padmadhar Pathak
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 170
________________ बुद्धि-विलास [ १३६ तिनके सरीर ते न होत वध प्राणी कोऊ, भोजन न करै उपसर्ग ह न जा समैं । नेत्र-टिमकार मिटै छाया से रहित होय, विद्या सव के ह स्वामी दूजो नांहि ता समैं। नष केस वधै नांहि एई दस अतिसय, उपजत घाति या करमनि के नास मैं ॥११७१॥ दाहा: देवतानि करि होत हैं, चौदह अतिसय प्राय । तीर्थकर ही के तिन्हैं, सुनिएँ भवि मन लाय ॥११७२॥ छद गी० : इक सर्वार्ध मागधी भाषा, फुनि हसव सौं मैत्रीभाव । तरु फूल रु फलें छहुँ रिति के, सव के ब प्रानंद-सुभाव ॥ भूमि रतनमय होत काचसम,त्रिविधि समीर चलत तिह ठौर । सीतल मंद सुगंध भविनु के, मेटत सकल खेद झकझोर ॥११७३॥ गंधोदिक की वृष्टि होत तंह, निरमल होत दिसा आकास । दोयसै रु पच्चीस कनक के, कमलनि के भूमिका सु तास ॥ ऊपरि अंतरीछि प्रभु चालत, हषेत्रनि मैं धान्य अनंत । देव वुलावत हैं देवनि कौं धर्म-चक्र मुख-अग्नि चलंत ॥११७४॥ सोरठा : __ मंगल-दर्य जु पाठ, ए चवदह अतिसय भये । यहै पुन्य कौ ठाठ, तीर्थंकर के होत है ॥११७५॥ चौदह अतिसय में आठ मंगल-दर्य को वर्नन दोहा : झारी पिडघा' पारसा, ताल ध्वजा२ अरु छत्र । कलस चवर ए अष्ट हैं, मंगल-दळ पवित्र ॥११७६॥ सोरठा : ये प्रतिसय चौतीस, प्रातहार्य फुनि पाठ हूं। जे भाषे जगदीस, सोहू सुनि भवि लाय मन ॥११७७॥ चौपई : प्रथम प्रसोक वृषि इक होय, वरिषा करें पहुप स्वर'-लोय। दिव्य-ध्वनि भगवत-मुषि षिरै, सुनि-सुनि के भविजन बहु-तिरै ॥११७८॥ ११७६ : १ पडिघा ।२ धुजा। ११७८ : १ सुर। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214