Book Title: Buddhivilas
Author(s): Padmadhar Pathak
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 173
________________ १४२ ] बुद्धि-विलास पद छत्तीस हजार तास के तुम गिनौं, फुनि तीजौ जु सथांन अंग ताकी सुनौं ॥११६६ वरनन जामै घट-दय॑नु को सव कियो, वहुरि ऐक दै आदि उतर सव ही दियो। पद-सथानक तीयालीस हजार हैं, चतुरथ है समवाय-अंग अव विधि कहैं ॥१२००॥ छंद गीता: है धर्म बहुरि अधर्म लोकाकास फुनि यक जीव है। गिनि नर्क सप्त सुदीप जंवू सिद्धि सरवारथ कहै ॥ भव भाव फुनि है वापिका जे दीप नंदीसुर तरणी। पद तास के इक लक्षि' चौसठि सहस भाषे मुनि गुरणी ॥१२०१॥ व्याक्ष्या प्रगिप्ति सु अंग पंचम वरन सुनि भवि धरि हिये । इह जीव है कि नही इत्यादिक प्रश्न गरणधर किये ॥ सव साठि सहस सु तास के उत्तर सवै जिनवर दऐ। पद दोय लषि अठवीस-सहस सु सुनत भवि हरषित' हिये ॥१२०२॥ अरिल : ___ ग्यात्रिकथांग षष्टमौं यह जानौं जथा, मद्धि तीर्थकर गरगधरांनि की है कथा। पद ताके लक्ष' पांच सु छपन हजार हैं, सोही वरनन जग मैं अवहू सार हैं ॥१२०३॥ सप्तम अंग सु हौ' उपासकाधैन जो, वरनन है श्रावकाचार को अन जो। पद ताके ग्यारह लषि सत्तरि सहस है, सो ग्रहस्थ-जन तणे काम के है यहै ॥१२०४॥ छद गीता : अंतक्रतदस-अंग अष्टम तास मधि है वरनये । इक एक तीर्थंकरनि के वारै मुनी दस-दस भये ॥ सव अंतक्रत केवली तिनको कथन यामैं जानिऐं। पद लक्ष है तेईस फुनि अठवीस-सहस वषांनिऐं ॥१२०५॥ १२०१ : १ लक्ष । १२०२ : १ A हरषत । १२०३ : १ लषि। १२०४:१ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jainelik

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