Book Title: Bruhat Paryushana Nirnay
Author(s): Manisagar
Publisher: Jain Sangh

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Page 2
________________ | श्रीचंद्रप्रभस्वामिने नमः ॥ G याद रखने योग्य उपयोगी सूचना. deare १- आत्मार्थी है ! भव्यजीवों खरतरगच्छ, तपगच्छ, कमलागच्छ, अंचलगच्छ, पायचंदगच्छादिकके आग्रहकी बातें करनेमें आत्मकल्याण मुक्ति नहीं है, किंतु जिनाशानुसारभावसे शुद्धधर्मक्रिया करने में मु क्ति है. इसलिये अपने २ गच्छकी परंपरा रूढीको छोडकर जिनाज्ञानुसार सत्यबातकी परीक्षाकरके उसमुजबधर्मकार्यकरो उससे श्रेयहो. वा २- श्रीसर्वज्ञ भगवान् के कहे हुए अतीव गहनाशयवाले, अपेक्षा सहित, अनंतार्थयुक्त जैनशास्त्र अविसंवादी हैं, मगर " कत्थई देसग्गहणं, कत्था धिप्पंति निरवसेसाइं । उक्कमकम जुत्ताई, कारण वसओ निरुत्ताई ॥ १ ॥ " श्रीजंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र की वृत्तिके इस महावाक्य मुजब - सामान्य, विशेष, ओपमा, वर्णनक, उत्सर्ग, अपवाद, विधि, भय, निश्चय, व्यवहारादिक संबंधी शब्दार्थ, भावार्थ, लक्ष्यार्थ, च्यार्थ, संबंधार्थादि भेदोंवाले गंभीरार्थके भावार्थ संबंधी शास्त्रवाक्योंकों समझे बिनाही अभी अविसंवादी सर्वज्ञशासन में कितने गच्छों के भेदोका आग्रह बढ गया है. देखो - "गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनीघातकरतां न लाजे । उदरभरणादि निजकाज करतांथ कां, मोहनडिया कलिकालराजे ॥ १ ॥ देवगुरुधर्मनी शुद्धि कहो किमरहे, किमरहे शुद्ध श्रद्धान आणो । शुद्धश्रद्धाविना सर्वकरियाकरी, छारपर निपणो तेह जाणो ॥ २ ॥ पापनहीं कोई उत्सूत्रभाषण जिस्युं, धर्म नहीं कोई जगसूत्र सरिखो । सूत्र अनुसारें जे भविक किरिया करें, तेहनो शुद्ध चारित्र परिखो ॥ ३ ॥ इत्यादि बातोंको विचार कर आत्मार्थियोंकों अपना असत्य आग्रहको छोडकर अपनी आत्माको हितकारी, सुखकारी होवे, वैसा सत्य ग्रहण करना चाहिये. ३- कितनेक मुनिमहाशय वर्षोवर्ष पर्युषणापर्वके व्याख्यानमें अधिक महीनेके व श्रीवीरप्रभुके छ कल्याणक के निषेध संबंधी बर्खा उठाते हैं, उससे भोले लोगोंको अनेक तरहकी शंकायें उत्पन्न होती हैं, और कितनेही महाशयतो इन बातों में तत्त्वदृष्टिसे सत्य असत्यका निर्णय किये बिनाही अपने पक्षको सत्य मान्य करके दूसरोंको झूठे. ठहरानेका एकांत आग्रह करते हैं । शास्त्रोंमें एकांत आग्रहको और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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