Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 10
________________ जीवन : 5 प्रखर साधुपुरुष समाज को तेजोमय प्रकाश से आलोकित कर रहे थे । पं. सत्यविजयजी में क्रिया, आनंदघनजी में योग और यशोविजयजी में ज्ञान - इस प्रकार आत्मज्ञान के तीन अंगों का त्रिवेणीसंगम हुआ था । ये तीनों पुरुष एक-दूसरे के साथ घनिष्ठ तादात्म्य रखते थे, पर फिर भी अपने साधनामार्ग की अनोखी शैली को उन्होंने बनाये रखा था । पं. सत्यविजयजी के साथ आनंदघनजी का और यशोविजयजी और आनंदघनजी के साथ श्री सत्यविजयजी का मिलाप प्रमाणसिद्ध है । पं. सत्यविजयजी ने क्रिया-उद्धार के लिए सूरिपद का स्वीकार नहीं किया था । वे संवेगमार्ग पर आगे बढ़े।10 आनंदघनजी तो निजानन्द की मस्ती में डूबे हुए योग और अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़नेवाले योगी थे । इसी तरह उपाध्याय यशोविजयजी ज्ञानी और दीर्घदर्शी महात्मा थे। इन तीनों साधुपुरुषों ने अपने साधुसमाज में प्रवर्तमान शिथिलता देखकर उस पर पर्दा डालने की बजाय उस पर स्पष्ट शब्दों में प्रहार करके सच्चे मार्ग की ओर अंगुलिनिर्देश किया । आनंदघनजी के स्तवनों से उस समय की धार्मिक स्थिति का परिचय मिलता है । इस समय के दौरान तपागच्छ के 'देवसुर' और 'अणसुर' - ऐसे दो बड़े पक्ष भेद चलते थे । सागर गच्छ का भी उस समय में काफी जोर था । फिर श्वेतांबर मूर्तिपूजक में से अलग होकर लुकामत और अन्य मत चल पड़े । उनके साथ भी विरोध जुड़ा रहा । ई. स. 1561 में धर्मसागर ने तपागच्छ ही सही है और बाकी सभी गच्छ गलत है, ऐसा बताकर उग्र प्रहार करनेवाले ग्रंथों की रचना की12 जिसकी वजह से जैन समाज में विभिन्न गच्छों के बीच अशांति का वातावरण पैदा हुआ । "मिराते अहमदी” में भी जैन समाज में 84 गच्छ अस्तित्व में थे, ऐसा उल्लेख मिलता है । ऐसे गच्छ में ही लीन रहनेवाले और संप्रदायवाद के युद्ध में अपनी वीरता दिखानेवालों पर प्रहार करते हुए आनंदघन कहते हैं कि संकुचित संप्रदायवाद के दलदल में फँसे हुए इन लोगों के मुँह से अनेकांतवाद की बात कितनी बेतुकी लगती है । गच्छ के भेदाभेद को बनाये रखते हुए अपना मान, महत्त्व और गौरव बढ़ाने की प्रयुक्तियाँ करनेवाले तथा दूसरों को हीन साबित करनेवालों के प्रति आनंदघनजी का प्रकोप ज्वालामुखी की तरह फट पड़ता था । कूपमंडूक इन्सान को तत्त्व की बात करने का कोई अधिकार नहीं है, ऐसा वे कहते हैं। यहाँ समकालीन परिस्थिति की विपरीतता पर प्रहार करने का इरादा नहीं है, किंतु इन शब्दों में योगी के अंतर्मन को वेदनादीर्ण कर देनेवाली दारूण परिस्थिति के खिलाफ वेदनापूर्ण चीत्कार है --- "गच्छना भेद बहु नयन निहालतां तत्त्वनी वात करतां न लाजे ।। उदर भरणादि निज काज करता थकां - मोह नडीआ कलिकाल राजे ।"13 * वस्तु में एक ही समय अनेक क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मो, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूपमें भली प्रकार प्रतीति के विषय बनने हैं । जो वस्तु किसी एक दृष्टि से नित्य प्रतीत होती है वही किसी अन्य दृष्टि से अनित्य प्रतीत होती है । यही अनेकान्तवाद है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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