Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 43
________________ 38 : आनंदघन हैं । आत्मा के तीन स्वरूप बताये हैं - बाह्यात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । बाह्य वस्तु में जो आत्मा समायी हुई है वह है बहिरात्मा, जो अंतरंग विशुद्ध दर्शन करे और ज्ञानमयी चेतना में आत्मबुद्धि का संचार करे वह अंतरात्मा और जो समस्त कर्मों का क्षय करके कैवल्य प्राप्त करे वह परमात्मा । ऐसे पूर्ण, पवित्र और ज्ञानानंदमय परमात्मा की उपासना करे । जो बाह्यात्मा को त्यागकर अन्तरात्मा में तन्मय हो जाता है वही परमात्मभाव को प्राप्त करता है। परमात्मा के साथ स्वयं का इतना बड़ा अन्तर कैसे हुआ ऐसे प्रश्न से आनंदघनजी श्री पद्मप्रभुजिन स्तवन का प्रारंभ करते हैं और स्तवन में इस अन्तर को दूर करने का उपाय बताकर स्तवन के अन्त में अन्तर समाप्त होने पर प्राप्त होने वाली आनंदमयी स्थिति का उल्लासपूर्ण गान करते हैं । प्रभु और स्वयं के बीच जो अन्तर पड़ा उसका कारण है कर्म का विपाक । कर्म की प्रकृति, स्थिति, रस और प्रदेश के कारण यह अन्तर स्थापित हुआ है । आत्मा के मूल गुण को प्रकट करके अर्थात् गुणकरण से इस अन्तर को दूर करना है । गुणकरण ही अन्तर को समाप्त करने का अमोघ मार्ग है और जब यह अन्तर खत्म हो जायेगा तब साधक की आत्मा साध्य में लीन हो जायेगी, मंगल वाद्य का मधुर गुंजन होगा, हृदय में आनंद की लहरें हिलोरे लेने लगेंगी। जिसके साथ एकाकार होना है वह परमात्मा कैसा है । आत्मा की पहचान तो पा ली परन्तु अभी परमात्मा को पहचानना बाकी था । तीर्थंकर श्री सुपार्श्वजिन के सातवें स्तवन में आनंदघन परमात्मा की पहचान करवाते हैं । संसार रूपी समुद्र में सेतु के समान सात महाभय को दूर करने वाले शिवशंकर और चिदानंद जैसे ये तीर्थंकर ज्योति स्वरूप हैं और इस तरह अनेक विशेषणों से कवि परमात्मा के भव्य स्वरूप की झांकी प्रस्तुत करते हैं और एकाग्र मन से उसकी सेवा करने को कहते हैं । ऐसे परमात्मा को देखने के लिए साधक को कैसे-कैसे प्रयास करने पड़ते हैं । आठवें श्री चन्द्रप्रभुजिन स्तवन में चन्द्रप्रभु 'मुखचंद्र' को देखने के लिए उन्होंने कौनकौन से शोध किये, यह दर्शाया गया है। सूक्ष्म निगोद*, बाह्य निगोद और एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी स्थानों में घूमने के बावजूद जिनवर से कहीं मिलन नहीं हुआ । इस मिलन के लिए योगावंचक होना चाहिए, बाद में क्रियावंचक बनकर और अन्त में फलावंचक होने को कहते हैं । यदि ऐसा हो तभी समस्त इच्छाओं को पूर्ण करनेवाले जिनवर से मिलन हो । प्रभु-पूजा के अनेक भेद कवि ने परवर्ती सुविधिनाथ जिन स्तवन में बताये हैं । यहाँ पूजनकार्य और पूजनफल के बारे में वे बताते हैं । पूजा का शीघ्र फल आज्ञापालन है और परंपरा-फल मुक्ति है । वे भावपूजा और प्रतिपत्ति पूजा का गौरव स्थापित करते हैं । उचित रूप में हुई ऐसी परमात्मापूजा से आनंदघन के पद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होते हैं। यह परमात्मा भी कैसा है ? करुणा, तीक्ष्णता और उदासीनता की त्रिभंगी * जो अनंत जीवों को एक निवास दे उसे निगोद कहते हैं । इसमें स्थित जीव सूक्ष्म और बादर होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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