Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 60
________________ आनंदघन कबीर, मीरा और अखा के परिप्रेक्ष्य में : 55 "कबीर प्याला प्रेम का अंतर लिया लगाय; रोम-रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय । सब रग ताँत् रबाब तन, बिरह बजावै नित्त; और न कोई सुनि सके, कै साईं के चित्त । प्रीति जो लागी धुल गई, पैढ़ि गई मन मांहि; रोम रोम पिउ-पिउ कहै, मुख की सरघा नाहि । । ” इस प्रेम के कारण रोम रोम प्रियतम को पुकारता है । यह वेदना ऐसी है कि अंतर को मथनी मथती है और बाहर उसे कोई समझ नहीं सकता । आनंदघनजी ने प्रेम की कथा को 'अकथ कहानी' कहा है। इन दोनों साधकों ने माया का वर्णन किया है । कबीर तो माया और छाया ( परछाई) को एक समान बताते हैं । भागते हुए आदमी के पीछे माया परछाई की तरह उसके साथ चलती रहती है लेकिन यदि मनुष्य माया से टक्कर ले तो वह भाग जाती है । माया मोहिनी ने अच्छे से अच्छे विद्वानों और सुज्ञजनों को मुग्ध किया है और उसने आदमी और भगवान के बीच अंतर उपस्थित किये हैं । इसीलिए सत्यज्ञान प्राप्त करके माया के मोहपाश से मुक्त होनेवालों के लिए कबीर कहते हैं : " माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रमि माहिं परंत, कोई एक गुरुज्ञान ते उबरें साधु संत ।” ( मायारूपी दीपक है और मनुष्य उस भ्रम में धोखा खाकर माया - दीपक में कूद पड़ता है सच्चे गुरु के पास से ज्ञान प्राप्त करके उससे बच जानेवाले साधु संत तो विरले ही होते हैं 1) आनंदघन कहते हैं कि “आतमकालिका" जागृत होने से उनकी मति (बुद्धि) आत्मा को मिलने लगी हैं और उन्होंने मायारूपी दासी और उसके परिवार को घेरकर अंकुश में ले लिया । माया में फँसा चेतन अपनी अवदशा बताता है । यह चेतन प्रकृति से अनावृत होने के बावजूद कर्मावृत हो गया है । उसका प्रकाश अंद घुट रहा है । अपनी शुद्ध चेतना का उसे खयाल है । वह उसके हृदय में ही स्थित है, फिर भी माया के कारण यह चेतना प्रकट नहीं हो सकती । चेतन संसार के मोह राग में त्रस्त बना है । वह परभाव में रमण करता है । स्थूल इंद्रियसुखों में मौज उड़ाता है | शरीर, धन और यौवन की बहुत बड़ी हानि होती है । दिनों दिन उसकी अपकीर्ति बढ़ती जाती है और शराफत छोड़कर गलत रास्ता अपनाने के कारण उनके आदमी भी उसकी नहीं सुनते । माया के ऐसे भ्रमजाल को चित्रित करते हुए कवि आनंदघन कहते हैं : “परघर भमतां स्वाद किशो लहे ? तन धन यौवन हाण: दिन दिन दीसे अपयश वाधतो, निज जन न माने कांण 12 बाडी. 3 इसी तरह से कवि आनंदघन एक पद में तन, धन और जवानी को क्षणभंगुर कहते हैं और ये प्राण तो पल भर में उड़ जायेंगे, तन जायेगा, फिर धन किस काम का ? अत: जन्म-जन्म तक सुख देनेवाली भलाई करने के लिए कवि कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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