Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 61
________________ 56 : आनंदघन व्यापक चिंतन रखनेवाले यह मस्त कवि मानों जनसमुदाय को स्नेह से जागृत करता हो वैसा कहता है । " बेहेर बेहेर नहि आवे, अवसर बेहेर बेहेर नहि आवे; ज्युं जाणे त्युं कर ले भलाई, जनम जनम सुख पावे, अवसर. " 1 ( बार-बार अवसर नहीं आता भाई, बार बार अवसर नहीं आता इसलिए ज्यों ही पता चले, भलाई कर लीजिए, आप जन्म जन्म तक सुख पाइए ।) कबीर और आनंदघन दोनों के पदों में हिन्दू और मुसलमान के ऐक्य की बात मिलती है । कबीर राम और रहीम एवं केशव और करीम के बीच कोई भेद नहीं देखते और आनंदघन भी कबीर के उसी धार्मिक औदार्य और परम सत्य को प्राप्त करने के लिए रहस्यवाद को हूबहू चित्रित करते हैं इसमें राम, कृष्ण या महादेव को कोई व्यक्ति नहीं मानते । राम अर्थात् राजा दशरथ का पुत्र नहीं, लेकिन आतमराम में रमण करे वह राम । जीवमात्र पर दया करे वही रहीम | कृष्ण अर्थात् कंस को वध करने वाला नहीं, परन्तु ज्ञान पर पड़े आवरण आदि कर्मों को नष्ट करे वह कृष्ण । शंकर वे नहीं, जो कैलास निवासी है अपितु जो निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करता है वह महादेव । जो आत्मस्वरूप को स्पर्श करता है, छू लेता है वे पार्श्वनाथ और जो चैतन्य आत्मा की सत्ता को पहचाने वे ब्रह्मा । इस तरह आनंदघन तो कहते है कि उन्होंने इसी रीति से परमतत्त्व की उपासना की है और यह परमतत्त्व वह ज्ञाता, दृष्टा और चैतन्यमय है । कबीर के बिल्कुल समकक्ष खड़ी रह सके ऐसी यह आनंदघन की समर्थ बानी है राम कहौ रहिमन कहौ कोऊ, कान्ह कहौ महादेव री; पारसनाथ कहौ कोऊ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयेव री । राम. 1 भजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूपरी; तैसे खंड कल्पना रोपित, आप अखंड सरूप री । राम. 2 निजपद रमै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री, करषै करम कान्ह सो कहियै, महादेव निर्वाण री । राम. 3 परसै रूप सौ पारस कहिये, ब्रह्म चिन्हे सौ ब्रह्म री, इह विध साध्यो आप आनंदघन, चैतनमय निःकर्म री । राम 44 : रहस्यवाद में परमात्मा की जो विरल अनुभूति होती है, उस अनुभूति में समय, अहमतत्त्व और ममत्व की भावना का लोप होता है, उस समय ध्याता और ध्येय दोनों मिलकर एक हो जाते हैं । इस अपूर्व अद्वैत की अनुभूति को व्यक्त करने के लिए शब्द समर्थ नहीं है, लेकिन संत हृदय में उसकी अभिव्यक्ति की व्याकुलता इतनी बढ़ जाती है कि उस परम तत्त्व की अनुभूति वाणी में खुद-ब-खुद उतर आती है । उस अगोचर और अगम्य तत्त्व को शब्दों में उतारने का प्रयास होता है । परमतत्त्व की यह अनुभूति प्रत्येक व्यक्ति में विलक्षण होती है, जब अनुभवकर्ता और अनुभूत चीज एक रूप बनते हैं, तब सर्वत्र अखण्ड स्वरूप के दर्शन होते हैं । कबीर इस मधुर अनुभूति को व्यक्त करते हुए कहते हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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