Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 67
________________ 62 : आनंदघन अंधेरी रात, सितारें रूपी दाँतों को चमकाते हुए वह मेरे सामने हँस रहा है । रात को नींद कहाँ से आयेगी । यह वियोगिनी तो आँसू बहा रही है और इतने आँसू बहाये कि भादों का महिना कीचड़मय हो गया है । मीरां ने 'विरह की फांसड़िया' की बात कही है, तो आनंदघन भी सुमति की विरह-व्यथा को आलेखित करते हुए कहते हैं : "विरह व्यथा कछु ऐसी व्यापती, मानुं कोई मारती बेजा, - अंतक अंत कटालुं लेगो प्यारे, माहे जीव तुं ले जा ।" विरह की पीड़ा इस तरह से छा जाती है कि मानों हृदय को तीक्ष्ण बाणों से वेध रहा हो । अरे ओ विरह, तुम कब तक ऐसी पीड़ा दोगे ? यदि तुम्हारी यही मरजी है, तो मेरी जान ही ले लो । वियोग व्यथा की छटपटाहट को कवि ने किस खूबी से शब्दों में चित्रित किया है ! आनंदघन के पद पढ़ते ही 'दरद दिवानी' मीरां की याद मन में अंकित हो जाती है। संसार के तुच्छ सुख को त्याग देने के लिए मीरां और आनंदघन दोनों ही कहते हैं । मीरां ने संसार सुख को 'झांझवाना नीर' (मृगतृष्णा) के समान तुच्छ और "परणी ने रंडावू पार्छ' (विवाह करके विधवा होना) होने के कारण कच्चा सुख माना है । संसार के ऐसे कई कटु अनुभव मीरां को अपने जीवन में हुए हैं । संसार का कच्चा रंग तो उड़ ही जानेवाला है । कवि आनंदघन भी ममता की संगत में डूबे मनुष्य को जागने के लिए कहते हैं । शुद्ध चेतना अपने पति चेतन को संसार की मोहमाया से जगाने के लिए अनुभवमित्र को विनती करती है । जो मनुष्य संसार की मोह माया में फँसा हुआ है, आनंदघन के अनुसार वह अजागल स्तन से दूध प्राप्ति की आशा में व्यर्थ परेशान हो रहा है । "अनुभव नाथकुं क्युं न जगावे, ममता संग सो पाय अजागल, थन तें दूध कहावे ।”9 संसार के स्वप्नवत् सुख में लीन मनुष्यों को आनंदघन हीरा को छोड़कर मायारूपी कंकर पर मोहित होने वाले मानते हैं । उनकी दशा बहुत खराब होती है । जिस तरह नरपशु यकायक आक्रमण करके बकरी को मार डालता है, उसी तरह से ऐसे मनुष्यों को काल खा जाता है । कवि कहते हैं : “सुपन को साच करी माचत राहत छाह गमन बदरी री आई अचानक काल . तोपची गहेग ज्युं नाहर बकरी री।" "सांसारिक सुख' को त्यागने वाली मीरां को कैसी-कैसी सांसारिक विपत्तियों को झेलना पड़ा था । ससुराल और नैहर छोड़कर उसने काशी, वृंदावन की राह ली और अंतत: द्वारिका में निवास किया । जगत और भक्त के बीच सनातन द्वंद्व होता चला आया है । इसलिए मीरां कहती हैं कि जिसके घर अतिथि के रूप में संत का आगमन नहीं होता उसके घर किसलिए जाना ? अपनी सांसारिक स्थिति को व्यक्त करते हुए मीरां गा उठती हैं : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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