Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 28
________________ आनंदघन का पद-वैभव : 23 रसिक हैं और वह जगत के भावों को चुन चुनकर खाता है । कल्पना वैभव की पराकाष्ठा तो कवि की इस विरह कल्पना में देखिए : 'गगन मंडल में गउआ विहानी, धरती दूध जमाया, माखन था सो विरला पाया, छों जग भरमाया.18 आकाशमंडल में गाय ब्याई है, उसका दूध पृथ्वी पर जमाया गया है । उस दूध का मक्खन कुछ लोगों को प्राप्त हुआ, शेष जगत तो छाछ से ठगा गया और उसीसे आनंदित हो गया । जगत के अधिकांश लोग तो विषय-कषाय के भोग में ही आनंद मान लेते हैं। योगी आनंदघन ने जैन साहित्य में प्रयुक्त होने वाले हरियाली-स्वरुप का अपने पदों में प्रयोग किया है । इस हरियाली में स्थूल दृष्टि से विरुद्ध भासित होने वाली बात को समझाया जाता है । यह हरियाली अन्योक्ति या व्याजस्तुति से भिन्न है । अन्योक्ति में संबोधित किसी ओर को किया जाता है और सुनाया किसी ओर को जाता है । व्याजस्तुति मे इस प्रकार प्रशंसा की जाती है कि जिसमें टीका या निंदा हो । हरियाली इन दोनों से भिन्न हैं इस प्रकार के दो पद आनंदघन ने भी लिखे हैं। कुछेक पदों का आरंभ 'अवधू', 'साधो भाई', 'सुहागन', 'चेतन', 'प्यारे प्राणजीवन' जैसी संबोधन शैली से होता है । आशावरी राग में अवधू को संबोधित करके लिख्ने गए सात पद प्राप्त होते हैं । इन पदों में कवि आनंदघन की आनंदमस्ती के भिन्न-भिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं । कभी 'अवधू' को संबोधित कर के स्याद्वाद की बात करते हैं, तो कभी सच्चिदानंद स्वरूप की पहचान करवाते हैं और कहते हैं कि हमारा कोई वर्ण नहीं है, घाट नहीं है, जाति नहीं है, पांति नहीं है । हम न हलके हैं न भारी, न गरम हैं न ठंडे, न किसी के पिता हैं न पुत्र, हम न मन हैं, न शब्द । हम क्रियाकर्ता भी नहीं हैं और क्रियारूप भी नहीं हैं । हम तो आनंद के समूहरूपी चैतन्यमय मूर्ति हैं । सत्-चित्-आनंदयुक्त हमारा त्रिकाल ऐसा अबाधित स्वरूप हैं जो हमे इस प्रकार स्थापित करता है कि हम परम महारस में डूब जाते हैं ।20 कहीं कहीं अवधू को संबोधित करके कवि आनंदघन व्यापक धर्म की बात करते हैं । वे कहते हैं कि जगत के लोग मुख में राम-नाम का जाप किया करते हैं, किंतु उसके अलक्ष स्वरूप का मर्मज्ञ तो कोई भाग्यशाली ही होता है । जगत में भिन्नभिन्न विचारों वाले लोग अपने-अपने मत में मस्त हैं । मठाधीश मठ में तो पाटधारी पाट में आसक्त हैं । जटाधारी जटा में और छत्रधारी छत्र में पड़े हैं । चौतरफा बहिरात्मभाव की बोलबाला है और परमात्मभाव का ध्यान धरने वाले तो बिरले ही हैं । परमात्मभाव की सच्ची खोज आकाश या समुद्र में नहीं, वरन् हृदयकमल में करनी चाहिए । ऐसा करने वाला आनंदरस प्राप्त करता है । 'अवधू' की स्थिति का वर्णन करते हुए आनंदघन कहते हैं कि जो आनंदराशि में अपनी ज्योति को समा दे वह अलख्ख कहलाता है । अवधू को संबोधित करके कवि आनंदघन ने ऐसा पद लिखा है जिसे पढ़कर सूरदास की भक्तिपरक लघुता और दैन्यता का अनायास ही स्मरण हो जाता है । कवि अपनी अज्ञता प्रदर्शित करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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