Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 39
________________ 34 : आनंदघन (प्रसंग) को निरूपित किया जाता है। इस प्रकार तीर्थंकर के बाल्यकाल, यौवनकाल या दीक्षा काल (अवस्था) की किसी महत्ता का निरूपण किया गया होता है । च्यवन , जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण इसमें से किसी एक की महत्ता का वर्णन किया जाता है । आनंदघनजी ने श्री नेमिनाथ जिन स्तवन में नेमराजुल के प्रसंग का निरूपण किया है। श्री यशोविजयजी महाराज ने विकराल वैताल को वश में करने वाला बाल वर्धमान का प्रसंग “महावीर जिन स्तवन" में महावीर के जीवन की झलक निरूपित करते हुए कहते हैं : "वंदो वीर जिनेश्वर राया, त्रिसलादेवी जाया रे; हरी लंछन कंचनवर काया, अमरवधु हुलराया रे; बाणपणे सुरगिरि डोलाया, अहि वैताल हराया रे, इन्द्र कहण व्याकरण निपाया, पंडित विस्मय पाया रे, त्रीस वरस घरबार रहाया, संयम शु लय माया रे; बार वरस तप कर्म खपाया, केवण नाण उपाया रे." स्तवनों में भक्त जिस प्रकार प्रभु-कीर्तन करता रहता है उसी प्रकार कभीकभी वह आत्मनिन्दा भी करता है । वह अपने अवगुण बताता है, अपनी कमियों और कमजोरियों को बताकर उनमें से उबारने के लिए तीर्थंकर से विनती करता है "विहरमान भगवान ! सुणो मुज विनति, जग-तारक ! जगन्नाथ ! अछो त्रिभुवनपति, भासक लोक लोक तणा जाणो छति, तो पण वीतक बात कहुँ छु तुज प्रति, हुँ सरूप निज छोड़ी रम्यो पर-पुद्गले, झील्यो उल्लट आणी विषय-तृष्णा-जले, आसव-बंध विभाव करूँ रूचि आपणी भूल्यो मिथ्यावास दोष दऊँ पर-भणी ।" इस स्तवन में जिस तरह आत्मनिन्दा करके स्तुति की गई हैं उसी तरह किसीकिसी स्तवन में आत्मानन्द का गान किया गया होता है । आत्मज्ञान प्राप्त होने पर अंतर में अपार आनंद होता है और कई स्तवनकारों ने इसको अपने स्तवनों में गाया है। श्री जिनलाभसूरि कुंथुजिन स्तवन में कहते हैं : .. "साहिब कुंथु जिणंद मंदिर पाउधारीयाजी जिनराज, ___ अति घणो उल्लट आंण मोतीयडे वधावियाजी ।" कवि तीर्थंकर कुन्थुनाथ भगवान का भव्य वर्णन करते हैं। लोग जयजयकार करते हैं । गणधर और इन्द्र भी आये हैं । वदन, नासिका और अधर अपूर्व सुशोभित होते हैं । कवि कहते हैं कि उनका मनमंदिर अत्यन्त उल्लास से भर गया है और अन्त में गा उठते हैं : * माता की कुक्षी में तीर्थंकर का गर्भ के रूपमें आना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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