Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 13
________________ 8 : आनंदघन "कलहकारी कदाग्रह भर्या, थापता आपणा बोल रे, जिनवचन अन्यथा दाखवे, आज तो वाजते ढोल रे.” (ढाल 1, कडी 7,8) (अर्थात् विषयरस में मग्न होकर मद में चकचूर होकर धामधूम में धमाधम चलकर कुगुरु नाचते रहे और ज्ञानमार्ग उनसे दूर ही रहा ।। कलहरूपी कीचड को हमारे वचन थोपते रहे । जिनवचनों पर कहीं और अमल करेंगे, आज तो ढोल बज रहे हैं ।) आनंदघन आत्मानंद में लीन साधक थे । साधुजीवन अपनाने के पश्चात् रागद्वेष, मोह और ममत्व से ग्रसित रहना, साधुजन को आत्मा से विमुख कर देता है, उसे ध्येयभ्रष्ट कर देता है । इसीलिए 'श्री वासुपूज्य जिनस्तवन' के समापन में उसे ही आनंदघन मत का संगी मानते हैं, जो आत्मज्ञानी है - आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजो द्रव्यत लिंगी रे, वस्तुगतें जे वस्तु प्रकासें आनंदधन मत संगी रे 20 (अर्थात् आत्मज्ञानी या श्रमण वही कहलायेगा जो अन्य द्रव्यों के प्रति दुर्लक्ष रखेगा । भौतिकता से दूर रहकर जो प्रकाशित है, आनंदघन के अनुसार वही मत का संगी है।) अध्यात्मयोगी आनंदधन के कृतित्व से उनके जीवन के बारे में कोई जानकारी नहीं उपलब्ध होती है । साधना के प्रचण्ड दावानल में सांसारिक जीवन की क्षुद्र बातें न जाने कहाँ भस्म हो जाती हैं । उनके कृतित्व से एक निजानंदी, संसार से बिलकुल बेपरवाह और परमात्मा के मार्ग पर ऊर्ध्व प्रयाण करने वाले मुमुक्षु की प्रतिभा स्वयमेव उभर आती है । भौतिक जगत के झंझट उसे छू नहीं सकते । आत्मिक धर्म के नाम पर चलनेवाली और फूलने-फलनेवाली वादविवाद तथा मतमतांतरों की दुनिया के प्रति आनंदघन को भारी घृणा थी । उनके कृतित्व से ही आत्मसाधना के मार्ग से परमात्मा को पाने के लिए प्रयत्न करनेवाले सच्चे साधक का व्यक्तित्व जानने को मिलता है । आत्मा जब परमात्मा बन जाती है, तब योगी आनंदघन के अंतर से अपने आप आत्मा और परमात्मा की एकरुपता का अनुभव शब्दस्थ होकर प्रकट होता है - “अहो हुं अहो हुं मुझने कहुं, _ नमो मुझ नमो मुझ रे ।।21 साधना की पहली शर्त अहम् भाव और अपनेपन का त्याग है । अहंत्व और ममत्व के मोह को मारकर ही इस मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं । साधक आनंदघन तो अपने प्रीतम ऋषभ जिनेश्वर के साथ प्रीत लगाकर बैठे हैं । यह प्रीत ऐसी है कि जो एक बार जग जाती है तो जन्म-जन्मान्तर तक भी नहीं छोड़ती । यह आदि अनंत है । जिसका आरंभ है, पर छोर नहीं है । जो एक बार बंधता है तो मृत्यु या काल के बंधन भी उसे नहीं छेद सकते । प्रभु की प्रीति में ऐसी लगन लगाकर बैठा साधक अपने आपको परमात्मा में जाने कब का विलोपन करके बैठा होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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