Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 14
________________ जीवन : 9 ऐसे अलक्ष्य को लक्ष्य करनेवाले संतों की परम उज्ज्वल परम्परा के मध्यकालीन साहित्य में दर्शन होते हैं । मध्यकालीन साहित्य में गुजराती कवि प्रेमानंद या गुजराती पद्यवार्ताकार शामल जैसे सर्जक कृति के अन्त में अपना परिचय देते हैं । अपना नाम, जाति, स्थल और कृति का प्रयोजन दर्शाते हैं, जबकि आनंदघन की किसी भी कृति में ऐसा परिचय उपलब्ध नहीं होता । कवि का उपनाम आनंदघन है और कहीं कहीं उन्होंने अपना मूल नाम लाभानंद का निर्देश किया है । मात्र एक पद में इस मस्तविहारी आत्मसाधक ने अनोखे ढंग से अपनी पहचान दी है । इस पद से उनकी आनंदमयता का ही पता चलता है | आनंदघन के माता-पिता कौन थे ? उनकी जाति या कुल क्या था ? इन सभी बातों को वे आनंदघन के रूप में पहचान कराते हैं । सच्चिदानंद की परम अनुभूति के समय साधक का व्यक्तित्व उसमें अधिक ओत-प्रोत हो जाता है, उसे इस पद में दिखाते हैं। मेरे प्रान आनंदघन, तान आनंदघन, मात आनंदघन, तात आनंदघन, गात आनंदघन, जात आनंदघन । मेरे. 1 राज आनंदघन, काज आनंदघन, आज आनंदघन, लाभ आनंदघन । मेरे. 2 आभ आनंदघन, गाभ आनंदघन, नाम आनंदघन, लाभ आनंदघन । मेरे. 3 इस पद की पंक्ति - पंक्ति से तरंगित होते आध्यात्मिक आनंद की मस्ती की छलक अनुभवित होती है । साधक की अवर्णनीय दशा की मस्ती के इन शब्दों में दर्श हैं । मस्तयोगी आनंदघन के जीवन के बारे में अत्यन्त अल्प जानकारी मिलती है । इसलिए ही उनके जीवन के आसपास अनेक दंतकथाएँ आच्छादित कर उसे प्रस्तुत किया गया है । आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागर सूरीश्वरजी ने 'श्री आनंदघन पद संग्रह ' में ऐसी उन्नीस किंवदंतियों (दंतकथाओं) का विस्तृत वर्णन किया है । इनमें से कुछ कथाओं का श्री मोतीचंद कापड़िया ने 'श्री आनंदघननां पदो, भा. १' में निरसन किया है, तो कुछेक का स्वीकार भी किया है । इन दंतकथाओं को आधाररूप मानकर ही आज तक आनंदघन के जीवनचरित्र का आलेखन करने का प्रयत्न हुआ है । इन किंवदंतियों के लिए कोई मजबूत आधार या प्रमाण नहीं मिलता है । यद्यपि ये दंतकथाएँ उस अध्यात्मयोगी की अध्यात्म मस्ती की सूचक हैं । कुछेक दंतकथाएँ तो उनके सर्जन की किसी एक पंक्ति को आधार बनाकर रची गई हैं; जैसे कि मेड़ता में उपाश्रय बनानेवाले सेठ को व्याख्यान में आने में बिलम्ब हुआ । श्री आनंदघनजी ने तो अपना व्याख्यान निश्चित समय पर शुरू कर दिया था । व्याख्यान पूरा हुआ तब उस सेठ ने आनंदघनजी को कहा- “साहब ! कपड़े बहोरता हूँ, आहार बहोरता हूँ, परिचर्या करता हूँ उसका ध्यान रखकर थोड़ी देर रूकना तो था !" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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