Book Title: Bhartiya Sahitya ke Nirmata Anandghan
Author(s): Kumarpal Desai
Publisher: Sahitya Academy

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Page 22
________________ आनंदघन का पद-वैभव मध्यकालीन साहित्य में योगी आनंदघन के पद भावसृष्टि, निरूपणशैली एवं हृदयस्पर्शिता की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । इनके पदों में आत्मस्वरूप के प्रत्यक्ष अनुभवों के अविचल, आनंदमय क्षणों का अनुभव निरूपित हुआ है । इन पदों में लालित्य, विषयप्रभुत्व एवं विशिष्ट शब्द-चयन आदि के कारण भावक को अध्यात्म की सघन अनुभूति प्राप्त होती है । आनंदघन के कई पदों में आध्यात्मिकता का गहन अनुभव एक रूपक द्वारा अभिव्यक्त होता है । सुमति अर्थात् शुद्ध चेतना अपने प्रिय आतमराम को, कुमति अर्थात् अशुद्ध चेतना को छोड़कर अपने स्व-घर आने की विनति करती है । इस सुमति की विरहाकुल विप्रलंभ श्रृंगार में अभिव्यक्त होने वाली वेदना में कवि आत्मतत्त्व पाने की उत्कट अभीप्सा प्रकट करता है । सुमति अपने प्रियतम को स्वस्वभाव के साथ जोड़ना चाहती है, तब कुमति अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित करके उसके प्रियतम (आत्मा) को क्षुद्र, स्थूल, सांसारिक भावों में निमग्न रखती हैं। सुमति आत्मा को जाग्रत करने का प्रयास करती हैं, किंतु आत्मा का शुद्ध चैतन्य से अनुसंधान केवल शास्त्रज्ञान से ही नहीं सधता । हाँ, शास्त्रज्ञान के दीपक का प्रकाश मार्गदर्शक अवश्य बनता है, परंतु आत्मज्ञान तो शुद्ध आत्मतत्त्व के साक्षात् अनुभव से ही प्राप्त होता है । देह और आत्मा के भिन्नता की अनुभूति होने के पश्चात् आत्मानुभव अत्यधिक सघन बनता है । अध्यात्मयोगी आनंदघन अशुद्ध चेतना की मायासृष्टि के समान कामना की चंचलता, देह की क्षणभंगुरता और सांसारिक स्नेह की स्वार्थमयता पर भी प्रकाश डालते हैं । उन्होंने इस मोहमलिनता का नाश करके चैतन्यशक्ति जागने के पुरुषार्थ पर जोर दिया है । सुमति अपने प्रियतम को मिलने के लिये विरह-वेदना का अनुभव करती है । कुमति के माया-जाल में फँसी हुई आत्मा जब उसमें से मुक्त होती है, तो उसे आत्मस्वरूप के प्रत्यक्ष अनुभव की अविचल कला प्राप्त होती है । महायोगी आनंदघन इस आंतरिक आध्यात्मिक प्रक्रिया का वर्णन करते हुए अंततः उससे प्राप्त होनेवाले अनुपम आनंद का गुणगान करते हैं । आनंदघन के स्तवनों में जहाँ एक ओर आध्यात्मिक आरोहण का क्रमिक आलेखन मिलता है तो दूसरी ओर उनके पदों में आध्यात्मिक ऊर्ध्वता की भिन्न भिन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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