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दे। विरोध की उपेक्षा कर साम्य पर बल देने में मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। प्रश्न पूर्वाग्रह का नहीं, अध्ययन की दृष्टि के चयन का है। हम तो मात्र यही चाहते हैं कि विरोधों और विभिन्नताओं में भी साम्यता के जो सूत्र रहे हुए हैं, उन्हें प्रस्तुत अध्ययन के द्वारा प्रकट कर दियाजाए।हमने विरोधों की उपेक्षाकर साम्यको अभिप्रकट करने के लिए जोसमन्वयात्मकप्रयास प्रस्तुत गवेषणा में किया है, उसका कारण पूर्वाग्रह नहीं, वरन् हमारे अध्ययन की दिशा का निर्धारण है।
जैसा कि हम पूर्व में बता चुके हैं, हमारे समन्वयात्मक-दृष्टि से किए गए इस तुलनात्मक अध्ययन का प्रमुख दृष्टिकोण, जैन आचार-दर्शन की, गीताऔर बौद्ध आचारदर्शन से जो सन्निकटता और साम्यता है, उसे अभिव्यक्त करना है। अध्ययन की इस समन्वयात्मक-दृष्टि के कारण ही प्रतिलक्षित होने वाले मूलभूत दार्शनिक विरोध विवेचना की दृष्टि से उपेक्षित से रहे हैं । यद्यपि समालोच्य परम्पराओं में दार्शनिक दृष्टि-भेद हैं, फिर भी उन विभिन्न आधारों पर निकाले गए नैतिक-निष्कर्ष इतने समान हैं कि वे अध्येता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किए बिना नहीं रहते हैं। यही कारण था कि समन्वयात्मकदृष्टि से अध्ययन करने के लिए हमने इनकी तत्त्वमीमांसा के स्थान पर आचारमीमांसा का चयन किया है, क्योंकि यह एक ऐसा पक्ष है, जहाँ तीनों धाराएँ एक-दूसरे से मिलकर उस पवित्र त्रिवेणी-संगम का निर्माण करती हैं, जिसमें अवगाहन कर आज भी मानव-जाति अपने चिर-संतापों से परिनिवृत्त हो शान्ति-लाभ कर सकती है।
अध्ययन-दृष्टि के सम्बन्ध में एक बात और भीकह देना आवश्यक है, वह यह कि समग्र अध्ययन में जैन आचार-दर्शन को मुख्य भूमिका में एवं गीता और बौद्ध आचार-दर्शन को परिपार्श्व में रखा गया है, अतः यह स्वाभाविक है कि बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन का विवेचन उतनी गहराई और विस्तार से न हो पाया है, जितनी कि उनके बारे में स्वतन्त्र अध्ययन की दृष्टि से अपेक्षा की जा सकती है, लेकिन इसका कारण भी हमारी उपेक्षावृत्ति नहीं होकर अध्ययन की दृष्टि ही है। अध्ययन के विषय के चयन के सम्बन्ध में
सम्भवतः यह प्रश्न उठता है कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बौद्ध और गीता के आचार-दर्शनों को ही क्यों चुना गया ? इस चयन के पीछे मुख्य दृष्टिकोण यह है कि भारत के सांस्कृतिक-परिवेश के निर्माण में जिन परम्पराओं का मौलिक योगदान रहा हो तथा जो आज भी जीवन्त परम्पराओं के रूप में भारतीय एवं अन्य देशों के जन-जीवन पर अपना प्रभाव बनाए हुए हैं, उन्हें ही अध्ययन का विषय बनाया जाए, ताकि तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से उनकी आचार-निष्ठ एकरूपताको अभिव्यक्त किया जा सके, जो उन्हें एकदूसरे के निकट लाने में सहायक हो। प्राचीन काल की निवृत्तिप्रधान श्रमण और प्रवृत्ति
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