Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 02
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 12
________________ -10 प्रधान वैदिक-परम्पराएँ ही भारतीय सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण करने वाली प्रमुख परम्पराएँ हैं। इन दोनों के पारस्परिक-प्रभाव एवं समन्वय से ही वर्तमान भारतीय-संस्कृति का विकास हुआ है। इनके पारस्परिक-समन्वय ने निम्न तीन दिशाएँ ग्रहण की थीं ____ 1. समन्वय का एक रूपथा, जिसमें निवृत्ति प्रधान और प्रवृत्ति गौण थी। यह 'निवृत्यात्मक-प्रवृत्ति का मार्ग था। जीवन्त आचार-दर्शनों के रूप में इसका प्रतिनिधित्व जैन-परम्परा करती है। 2. समन्वयका दूसरा रूपथा, जिसमें प्रवृत्ति प्रधान और निवृत्ति गौणथी। यह 'प्रवृत्यात्मक-निवृत्ति का मार्ग था, जिसका प्रतिनिधित्व गीता से प्रभावित आचार-दर्शन की वर्तमान हिन्दू-परम्परा करती है। 3. समन्वय का तीसरा रूप था, प्रवृत्ति और निवृत्ति की अतियों से बचकर मध्यममार्ग पर चलना, इसका दिशा-निर्देशभगवान् बुद्ध ने किया। उनके आचार-दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों का समान स्थानथा। उसमें परिवार के त्याग के अर्थ में निवृत्ति का स्थान था, तो सामाजिक-कल्याण के अर्थ में प्रवृत्ति का। साथ ही, मध्यम मार्ग के रूप में संन्यास की सारी कठोरता समाप्त हो गई थी। वस्तुतः, उपरोक्त तीनों विचारणाएँ अपने समन्वित रूप में समग्र भारतीय आचारपरम्परा की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं। वर्तमान युग तक इनके बाह्य-रूप में अनेक परिवर्तन होते रहे, फिर भी इनकी पृष्ठभूमि बहुत कुछ वही बनी रही है। आज भी यह तीनों परम्पराएँ भारतीय नैतिक-चिन्तन के एक पूर्ण स्वरूप का प्रतिपादन करने में समर्थ हैं। यही नहीं, तीनों परम्पराएँ अपने आन्तरिक रूप में एक-दूसरे के इतनी निकट हैं कि अपने अध्येता को तुलनात्मक-दृष्टि से अध्ययन करने को प्ररित कर देती हैं। अध्ययन-सामग्रीएवं क्षेत्र उपर्युक्त तीनों पम्पराओं में से जैन-परम्परा में आचार-दर्शन की दृष्टि से भी सैद्धान्तिक-रूप में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं हुआ है। यद्यपि आगमों की अपेक्षा पश्चकालीन ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी नियमों में थोड़े-बहुत व्यावहारिक परिवर्तन अवश्य परिलक्षित होते हैं, फिर भी जैन-परम्परा की यह विशिष्टता है कि इतनी लम्बी समयावधि में वह अपने मूल केन्द्र से अधिक दूर नहीं हो पायी। आज भी वह निवृत्यात्मक-प्रवृत्ति के अपने मूल स्वरूप से इधर-उधर कहीं नहीं भटकी है। पश्चकालीन ग्रन्थों में भी आगम के विचारों काही विकास देखा जाता है, अतः अध्ययन की दृष्टि से मूल आगमों के साथ-साथ परवर्ती आचार्यों के ग्रन्थों एवं दृष्टिकोणों का उपयोग भी किया गया है। ईशावास्योपनिषद् एवं गीता की मूलभूत धारणा पर जिस हिन्दू आचार-परम्परा का विकास हुआ, उसमें सैद्धान्तिक और व्यावहारिक-दृष्टि से वर्तमान काल तक अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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