Book Title: Bharat Jain Mahamandal ka Sankshipta Itihas 1899 to 1946
Author(s): Ajitprasad
Publisher: Bharat Jain Mahamandal Karyalay
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( १२ ) प्रात्मगौरव में हानि उठाई और जगहंसाई कराई । अतः हमको आपस में मिल कर अपने झगड़े निमटा लेने चाहिये। ऐसा करने से बाह्य आक्रमणों से अपनी रक्षा कर सकेंगे। मकशी जी और शिखरजी के झगड़े हमारी मूर्खतावश स्वार्थी लोगों के बहकाए से चल रहे हैं।
अधिवेशन का बलसा नगीनचंद्र इन्सटीट्युट हाल में हुआ। सेठ मानिकचन्द हीराचन्द जे० पी० अध्यक्ष स्वागत समिति के भाषण के बाद श्रीयुत उदात्री पूरे घंटे भर बोले । उन्होंने अपने भाषण में कहा कि आज का दिन सौभाग्यपूर्ण है। भिन्न जैन श्राम्नाय के नेता छोटे छोटे मेदभाव का त्याग करके जैन धर्म प्रभावनार्थ एकत्रित और समाज संगठनार्थ प्रस्तुत हुए हैं। प्रत्येक जैन सम्प्रदाय की यद्यपि पृथक पृथक सभा है, और उससे यथेष्ट काम भी हो रहा है, तदपि सामान्य सामाजिक सुधार और सिद्धान्त प्रचार में मिल कर, संगठित होकर, एक साथ बल लगा कर काम करने से सफलता शीघ्र और अधिक मात्रा में प्राप्त होगी। दुष्काल के प्रभाव से वीतराग कथित धर्म में विविध मेद उत्पन्न हो गए; और एक आम्नाय दुसरे को गैर, पर, या विरोधी समझने लगी। एकान्त कदाग्रह बढ़ता गया और अनेकान्त को सामनजस्य भावना पटती गई। महावीर स्वामी की दिव्य ध्वनि से जो धर्म का स्वरूप प्रदर्शित हुश्रा था, वह एक ही था। गौतम गणधर और भ्रत केवलीयों के प्रवचन में भी भिन्नता न थी। पंच परमेष्ठी के गुण लक्षण सर्व सम्प्रदाय एक से ही मानती है । रहन सहन, वस्त्र भोजन, सामाजिक सदाचार, सद्व्यवहार में भी ऐसे भेद नहीं हैं, जो हम सबको मिल कर रहने में बाधित हों। हमारा धर्म हम को पशु-पक्षियों से भी प्रेम सिखलाता है, फिर मनुष्य जाति से, भारतवासी से, सहधर्मी से तो सद्भाव रहना प्राकृतिक ही है। हमें आशा है कि आज का सम्मेलन बैन समाज के जीवन में चिरस्मरणीय रहेगा। सम्मेदशिखरजी
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