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भक्तामर-कथा।
एक गौड़शास्त्र नामक शहर था । वह सुन्दरतामें पृथ्वीके तिलक समान था। उसके राजाका नाम प्रजापति था । वे बुद्धिमान और राजनीतिके अच्छे जानकार थे । वे बुद्धधर्मको मानते थे। । एक दिन राजसभामें एक बुद्ध-साधु और दूसरे जैन-मुनि परस्पर शास्त्रार्थ करनेके लिए आए । उनमेंसे जैन-साधुका नाम मतिसागर था और बुद्ध-साधुका प्रज्ञाकर ।उनमेंसे पहले बुद्ध-साधुने खड़े होकर कहासब वस्तुएँ क्षणिक हैं; क्योंकि वे सरूप हैं, अर्थात् विद्यमानरूप हैं। जो सत् होता है वह नियमसे क्षणिक होता हैं। जैसे घट, पट आदि वस्तुएँ । बात यह है कि अवयव सब भिन्न भिन्न हैं; परंतु वे जब परस्परमें मिलते हैं तब अवयवीकी कल्पना की जाती है, अर्थात् उनमें एकत्व-बुद्धि होती है । वास्तवमें कोई एक अवयवी नहीं है। जैसे चवरके बाल सब जदे जदे हैं, पर मिलनेसे वे एकत्वकी बुद्धि उत्पन्न कर देते हैं। ___ इसके उत्तरमें जैनसाधने कहा-यदि सब वस्तुएँ क्षणिक ही हैं तो जिस देवदत्तको मैंने पहले देखा था 'यह वही देवदत्त है' इस प्रकारका जो एक ज्ञान होता है वह नहीं होना चाहिए; पर होता जरूर है । क्योंकि तुम्हारे क्षणिक सिद्धान्तके अनुसार तो पहले देखी हुई वस्तु नष्ट हो जानी चाहिए । इसके सिवा संसारमें जो लेन-देन व्यवहार होता है, वह फिर कुछ भी न होना चाहिए। क्योंकि जिसके साथ लेन-देन किया जाता है, वह तो नष्ट हो जाता है।
कदाचित् कहो कि, " तुम्हारा यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे नख काट भी दिये जाते हैं, पर उनकी संतति बनी रहनेके कारण वे फिर निकल आते हैं। उसी प्रकार पहले देखी हुई वस्तुका जो ज्ञान होता है अथवा लेन-देनकी जो स्मृति