Book Title: Bhaktamar Katha
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Jain Sahitya Prasarak karyalay

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Page 113
________________ भक्तामर-कथा। wronomwwwmawwanmomorrorom __ रणकेतुने अपनी स्त्रीके बहकानेमें आकर बेचारे निर्दोष भाईको देश निकाला दे दिया । गुणवर्मा मथुरासे चल कर ऐसे दूर स्थान पर चले गए, जहाँ उन्हें भाईका नाम ही सुनाई न पड़े । अब उन्हें किसी तरइके भयकी संभावना न रही । वे एक पर्वतकी गुफामें रह कर और पर्वतोंके पवित्र फल-फूल खाकर सुखसे जीवन बिताने लगे। ___ इसके कुछ समय बाद रणकेतु दिग्विजय करनेके लिए निकले । रास्तेमें वही पर्वत पड़ा जहाँ उनके भाई गुणवर्मा रहते थे । रणकेतुने उन्हें देख लिया । देख कर उन्होंने सोचा कि मेरे राज्यका पक्का दुश्मन तो यही है । समय पाकर यह न जाने क्या कर बैठेगा ? इसलिए पहले इसे ही जड़मूलसे उखाड़ फेंक देना अच्छा है। और यह जगह भी ऐसी है कि यहाँ जो कुछ किया जायगा उसे कोई भी न जान पायगा । इसके साथ ही रणकेतुने अपनी सेनाको आज्ञा की किजाओ इस पर्वतकी गुफाको घेर कर उसे तोपोंसे उड़ादो । रणकेतुकी आज्ञा पाते ही सेनाने पर्वतको घेर कर धड़ाधड़ तोपें छोड़ना जारी कर दिया । गुणवर्मा शान्तिसे बैठे हुए थे । वे अचानक सुनसान पर्वतमें तोपोंकी आवाज सुन कर आश्चर्यमें आ गए। उन्होंने सोचा-संभव है शिकारी लोग शिकार करते होंगे। पर मेरे ऐसे पवित्र स्थानमें जीवोंकी हिंसा उचित नहीं । चल कर देखू कि क्या है? वे उठ कर गुफाके दरवाजे पर गए। इतनेमें उन्हें तोपी भयंकर आवाजके साथ यह कोलाहल सुनाई दिया कि देखो, “गुफामेंसे शत्रु निकल कर भाग न जाय, उसे मारडालो।" गुणवर्मा तब समझे कि भाईको मेरा जीना ही बुरा जान पड़ता है । वे मुझे मार डालना चाहते हैं । अस्तु यदि उनकी ऐसी इच्छा है तो वे उसे पूरी करें । मुझे तो एक बार

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