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रूपकुंडलाकी कथा।
भूतानां निवृत्तिस्तु महाफलम् ॥" अर्थात् न मांस खानेमें दोष है, न शराब पीनेमें दोष है, और न व्यभिचार सेवनमें दोष है; किन्तु ये तो जीवोंकी स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं । हाँ, यदि ये छूट जायँ तो अच्छा है। इस प्रकारका विरोध न हो । अर्थात् जो स्वार्थियोंका रचा हुआ न होकर निःस्वार्थी, परम वीतरागी, और संसारके हित करनेवाले महापुरुषोंका रचा हुआ हो और जिसमें कुमार्गों-संसारमें भ्रमण करनेवाले मिथ्यामार्गोका खण्डन किया जाकर जीवोंको सुखका रास्ता बतलाया गया हो । इसके सिवा जिसे न तो कोई वादी प्रतिवादी बाधा पहुंचा सके और न जिसमें प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणसे विरोध हो । वही. सच्चा और हितैषियों द्वारा आदर करने योग्य शास्त्र है। .
तत्व सात हैं:
जीव-जिसमें चेतना-दर्शन और ज्ञान पाए जायें । · अजीव-जिसमें ज्ञान और दर्शन न हो-जो जड़ हो।
आस्रव जो कर्मोंके आनेका रास्ता हो अर्थात् जिसके द्वारा कर्म आते हों।
बंध-आत्मा और कर्मोंके प्रदेश परस्पर एक क्षेत्रावगाह होकरपरस्पर मिल कर जो एकत्व-बुद्धिको उत्पन्न करते हैं वह बन्ध है। जिस भाँति चाँदी और सोनेको मिला कर गलानेसे अथवा दूधमें पानी मिला देनेसे वे भिन्न भिन्न दो पदार्थ होने पर भी एक जान पड़ते हैं, उसी भाँति आत्माके साथ कर्मोंका जो एकत्व-सम्बन्ध हो जाता है, जिससे उनका जुदापन नहीं जान पड़ता, वही बंध है।
संवर-आते हुए कर्मोंके रुक जानेको संवर कहते हैं। जैसे नाँवमें कहीं छेद होनेसे उसके द्वारा जो जल आता रहता है और उस छेदको बन्द कर देनेसे उस जलका आना रुक जाता है,
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