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__ एकार्थ-अनेकार्थ कहलाता है और कर्मों के रस का भेदन करना 'भिज्जमाण' होना कहलाता है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोग केवली स्थितिघात के साथ रसघात भी करते हैं।
स्थितिघात और रसघात का काल एक ही होता है, लेकिन स्थितिघात के खंड में रसघात के खडवें अनन्त होते हैं। अर्थात् स्थिति से कर्म के परमाणु अनंत गुणे हैं । स्थिति खंड की क्रम-रचना होती है-कि इस समय इतने स्थिति खंड का नाश होगा । श्रतएव यद्यपि कर्म स्थिति और 'कर्मरस का नाश एक ही समय होता है, लेकिन स्थितिघात के पुद्गल अलग हैं और रसघात के अलग हैं। इस कारण छिज्जमान और भिज्जमाण पदों का अर्थ अलग-अलग है।
जैसे स्थिति कम की जाती है उसी प्रकार रस भी सोखा जाता है । इस रस के सोखने में भी असंख्य समय लगते हैं, परन्तु पहले समय से जो रसघात होता है, उसकी अपेक्षा रसघात हुमा, ऐसा कहा जा सकता है ।
तीसरा पद 'दह्यमान है। कर्म के प्रदेशों का घात होना कर्म का दाह कहा गया है। अनन्तानन्त कर्म-प्रदेशों को अकर्म रूप में परिणत कर देना कर्म का दाह करना कहलाता है।
मोक्ष प्राप्त करने वाले महात्मा किस स्थिति से, किस प्रकार अात्मिक विशुद्धि करके मुक्त होते हैं, इस बात को ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में देखा है और भाज शास्त्र द्वारा उसे मुनकर हम पवित्र हुए हैं।